गुरुवार, 6 मार्च 2014

‘आप’ फूंक-फूंक कर चले।

यह लड़ाई अंग्रेजों से लड़ने की नहीं, कि देश की जनता भावनात्मक रूप से ‘आप’ के साथ हो जायेगी। यह लड़ाई उस व्यवस्था से जो हमारे जीवन का अंग बन चुकी है। इस भ्रष्ट व्यवस्था में हर किसी का स्वार्थ छुपा हुआ है। चाहे वह पत्रकार हो या संपादक, सिपाही हो या ऑफिसर,  मंत्री हो या चपरासी। चेन की तरह सबके सब इस व्यवस्था के हिस्सेदार बन चुकें हैं। 
कोलकाताः (दिनांक 06 मार्च 2014) 
कल गुजरात के राधनपुर में आम आदमी पार्टी के संयोजक श्री अरविंद केजरीवाल के साथ जो कुछ भी घटा और तुरन्त उसके बाद दिल्ली भाजपा कार्यालय के बाहर जो कुछ भी हुआ, उसकी नाकारात्मक प्रतिक्रिया स्वभाविक थी। कुछ निर्णय ‘आप’ के आंदोलन को कमजोर करने में काफी महत्वपूण रहें हैं जिसमें 1. खड़की एक्सटेनशन में आधी रात को बिना वारण्ट के छापा मारना, मुख्यमंत्री के रूप मे केजरीवालजी का धरना और कल का दिल्ली और लखनऊ में ‘आप’ का कदम। 
‘आप’ को समझना होगा कि देश की जनता ‘आप’ के हर कदम पर नजर रखे हुए है। कांग्रेस और भाजपा के पापों से देश को मुक्त कराने के लिये जनता में अजीब सी छटपटाहट है। जबकी भाजपा और कांग्रेस हर उस ताकत (सरकारी तंत्र) का प्रयोग ‘आप’ को कुचलने के लिये करना चाहेगी जिससे ‘आप’ की शक्ति क्षीण हो।
इन दिनों जिसप्रकार मोदी के उग्रवादी समर्थक सिर्फ ‘आप’ और केजरीवाल को तारगेट करने में लगें हैं इससे साफ हो जाता है कि भाजपा को कांग्रेस से कम, ‘आप’ से अधिक खतरा है। 
इसीलिये मुम्बई में नितीन गडकरीजी, राज ठाकरे को मनाने में जूटें हैं कि कहीं दिल्ली जैसा हाल इनका महाराष्ट्र में भी ना हो जाय। भाजपा (मोदी ग्रुप) का सारा अंकगणित ‘आप’ खराब कर सकती है। इस बात का इनको आभास हो चुका है। इसलिय भाजपा उस हर कदम का राजनीति लाभ लेने का प्रयास करेगी जिससे ‘आप’ की लहर को नूकशान  हो। ‘आप’ को इन सब बातों पर ध्यान देने की जरूरत है।
दूसरी सबसे महत्वपूर्ण बात है कि ‘आप’ भ्रष्टमुक्त व्यवस्था लाने के लिये सबसे दुश्मनी मोल लेता जा रहा है। ऐसे में कोई भी ऐसी व्यवस्था जो अधिकांशतः भ्रष्टाचार में लिप्त है वह हर उस अवसर के तलाश में है जिससे ‘आप’ को ना सिर्फ राजनीति रूप से क्षति पंहुचा सके। तमाम सरकारी दस्तावेजों में भी अदालत को भी गुमराह कर सके। कहाँ-कहाँ, और किस-किस को सफाई देते फिरेगें ‘आप’? 
यह लड़ाई अंग्रेजों से लड़ने की नहीं, कि देश की जनता भावनात्मक रूप से ‘आप’ के साथ हो जायेगी। यह लड़ाई उस व्यवस्था से जो हमारे जीवन का अंग बन चुकी है। इस भ्रष्ट व्यवस्था में हर किसी का स्वार्थ छुपा हुआ है। चाहे वह पत्रकार हो या संपादक, सिपाही हो या ऑफिसर,  मंत्री हो या चपरासी। चेन की तरह सबके सब इस व्यवस्था के हिस्सेदार बन चुकें हैं। 
संविधान इनके हाथों में कैद हैं। सरकारी तंत्र को पूरी तरह से इन अपराधियों ने कब्जे में कर रखा है। सबको एक साथ ललकार नहीं जा सकता। अभी सिर्फ सत्ता के दलालों को ही ललकारना सही रहेगा। बाकी सभी व्यवस्था को साथ लेना होगा। भले ही वह गलत ही क्यों न हो। जयहिन्द!!  - शम्भु चौधरी
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मंगलवार, 4 मार्च 2014

अण्णाजी की राजनीति? - शम्भु चौधरी

संसद में लोकपाल बिल पारित करते समय अण्णाजी को जिन व्यक्तियों ने गुमराह किया उनमें से एक चौथी दुनिया के प्रधान संपादक श्री संतोष भारतीय भी हैं, जिन्होंने  अपने नये संपादकिया देखें 24 फरवरी का अंक ‘‘लोकतंत्र को तमाशा ना बनने दें’’ में श्री अण्णा हजारे के उस 17 सूत्रीय कार्यक्रम का जिक्र करते हुए आपने ममता बनेर्जी की काफी प्रसंशा की है। 
कोलकाताः (दिनांक 04 मार्च 2014) 
अण्णाजी जी ने जिस प्रकार ममता दीदी को लेकर राजनीति शुरू की है यह भी ठीक उसी राजनीति का हिस्सा है जिसप्रकार अण्णाजी ने जी ने रालेगणसिद्धी में बैठकर अनशण किया और पलकों में ही केन्द्र की कांग्रेस सरकार और भाजपा के दो एजेण्टों ने मिलकर अण्णाजी को गुमराह किया था। अब यह बात किसी से छुपी नहीं है कि वे दो एजेण्ट कौन थे। खुद अभी भाजपा में शामिल हुए जनरल वि.के.सिंह ने स्वीकारा किया कि ‘अण्णाजी’ एक सशक्त 'लोकपाल बिल' लाना चाहते थे। फिर देश को गुमराह क्यों किया गया? इसका जबाब अभी रहस्य बना हुआ है। परन्तु जिस प्रकार लोकपाल समिति के चयन पर रोजाना उठ रहे विवाद और चयनित सदस्यों के द्वारा पद से त्यागपत्र इस बात पर संकेत तो दे ही रहा है कि कहीं दाल में काला है जिसे कांग्रेस और भाजपा दोनों मिलकर छुपाना चाहते हैं।

संसद में लोकपाल बिल पारित करते समय अण्णाजी को जिन व्यक्तियों ने गुमराह किया उनमें से एक चौथी दुनिया के प्रधान संपादक श्री संतोष भारतीय भी हैं, जिन्होंने  अपने नये संपादकिया देखें 24 फरवरी का अंक ‘‘लोकतंत्र को तमाशा ना बनने दें’’ में श्री अण्णा हजारे के उस 17 सूत्रीय कार्यक्रम का जिक्र करते हुए आपने ममता बनेर्जी की काफी प्रसंशा की है।  

आप लिखते हैं कि 30 जनवरी को कोलकाता के पैरेड ग्राउंड में ममताजी की रैली में 30 लाख लोग आये थे।  20 लाख मैदान में 5 लाख मैदान के बहार और 5 लाख लोग कोलकाता की सड़कों पर। मुझे ताजूब होता है कि श्रीमान संपादकजी को कोलकाता की भौगोलिक स्थिति का कोई अंदाजा तक नहीं है। शहर में 15 लाख लोग यदि एक साथ प्रवेश कर जाएं तो टॉलिगंज से श्यामबजार और हवड़ा स्टेशन से सियालदाह स्टेशन के सभी मार्ग व सभी मैदान जाम हो जायेगें।  वैसे बिग्रेड पैरेड मैदान की अधिकतम क्षमता ही 5 लाख लोगों की है यदि अंदर और बहार चारों तरफ आदमियों से पट जाए।

 खैर! यह इनके सोचने का नजरिया है। जहाँ तक अण्णाजी के 17 सूत्रीय पत्र की बात है तो संपादक जी ने ‘अपने संपादकिय में कहीं भी ‘आप’ पार्टी का जिक्र तक नहीं किया जबकि इनको इस बात का पता था कि अरविंदजी ने इस पत्र पर पहले ही अण्णाजी से मिलकर अपनी स्वीकृति दे दी थी। ना तो संपादक ने अपने पत्रकारिता के धर्म को निभाने के प्रयास किया ना ही वे भारतीय राजनीति में ‘आप’ का अपने लेख में चिन्हीत तक ही किया। यदि अरविंद जी किसी समाचार मीडिया की बात करते है तो उनमें "चौथी दुनिया" समूह का विद्वेष साफ झलकता है। 

संपादक की माने तो ‘भारतीय राजनीति में ममता बनेर्जी के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं है। सुश्री ममता बनेर्जी स्वयं एक कुशल नेत्री है परन्तु उनकी टीम में आज भी बहुत से ऐसे लोग हे जिस पर बंगाल की जनता को पूरा विश्वास नहीं है।  इससे साफ हो जाता है कि अण्णाजी और ममता जी को राजनीति फायदे के लिय इस्तमाल किया जा रहा है "संतोष भारतीय" ने इन दोनों को अपने राजनीति फायदे और केजरीवाल को नूकशान पंहुचाने के लिये प्रयोग करना शुरू कर दिया है। जो कहीं न कहीं नीच मनसिकता का परिचायक है।  इससे ममता बनेर्जी को कोई फायदा नहीं होगा। ना ही ममता बनर्जी का बंगाल से बहार कोई कद बनने की संभावना वर्तमान राजनीति में दिखाई देती है। - शम्भु चौधरी

रविवार, 2 मार्च 2014

"संसद" बहुमत की बपौती नहीं!

ऐसा बहुमत जो लोकतंत्र की मूल भावना को तहसनहस करता हो, ऐसा बहुमत जो देश को लूटने के लिये बनाया जाता हो और लुटरों को सुरक्षा प्रदान करता हो उसे कदापी बहुमत नहीं माना जा सकता भले ही पूरी की पूरी संसद उसके पक्ष में ही क्यों ना खड़ी हो। हमें इसके उन पहलुओं पर भी गंभीरता से सोचना होगा कि ‘अल्पमत’ की जायज बातों को कहीं ‘बहुमत’ से दबाया तो नहीं जा रहा? यदि ऐसा है तो यह लोकतंत्र के लिये शुभ संकेत नहीं है।
अन्ततः कल 15वीं लोकसभा ने अपनी अंत्येष्टि कर ली। मनमोहन सरकार के इस अंत्येष्टि कार्यक्रम के समापन समारोह जब प्रतिपक्ष की नेता श्रीमती सुषमा स्वराज ने कहा की ‘‘तेलंगाना व लोकपाल बिल को इस संसद ने पास किया जो वर्षों से लंबित पड़ा था। यह अपने आप में इतिहास है।’’ जबकि लोकसभा के वरिष्ठतम सदस्य व भाजपा के नेता श्री लालकृष्ण आडवाणी जी सदन में अपनी तारीफ सुनकर भावुक हो गये उनकी आंखों में आंसू भर आये। यह दोनों ही दृश्य कई प्रश्नों का जबाब खोज रही है।

15वीं लोकसभा ने जाते-जाते जिस प्रकार बिल पर बिल पास करने की हड़बड़ी दिखाई, इससे संसदीय लोकतंत्र परंपरा पर कई प्रश्नचिन्ह भी लगा दिये हैं कि क्या ‘‘इसी को लोकतंत्र कहते हैं?’’ संसद को जिसप्रकार ब्लैकआउट कर बहुमत को दंभ भरा गया। ‘‘क्या इसे ही लोकतंत्र की मर्यादा कही जा सकती है?’’इसीप्रकार बहुमत की ताकत से संसद को चलाया जाना था तो ‘‘महिला बिल’’ ने क्या पाप किया था? 

तेलंगाना राज्य बने इस बात पर देश में कहीं विवाद नहीं। परन्तु जिस जमीन पर इसकी फसल रोपी गई है वह ना सिर्फ लोकतंत्र के लिये खतरे की घंटी है। इससे भाजपा की नियत पर शक होना लाजमी है कि यह प्रतिपक्ष में बैठी है कि सत्तापक्ष की दलाल है? 

15वीं लोकसभा में ही ‘‘लोकपाल बिल’’ को लेकर भाजपा नेता श्री अरुण जेटली जी का एक और बयान चौंकानेवाला रहा ‘बिल’ पर बहस का समय नहीं मिले तो सदन में बिना बहस के भी ‘‘लोकपाल बिल’’ को पारित किया जा सकता है।’’ सवाल इस बात का नहीं कि जेटलीजी ने सबकुछ देख सुन लिया है। सवाल इस बात का है कि देश की जनता को जानने का हक है या नहीं? कि संसद में हो क्या रहा है? 

"संसद" बहुमत की बपौती नहीं!
संसद सिर्फ बहुमत की बपौती नहीं है। इससे 125 करोड़ लोगों की आस्था जूड़ी हुई है। बहुमत एक आस्था और व्यवस्था का नाम है, ना कि तानाशाही का। राजनैतिक दलों में आपसी सहमती बने यह अच्छी परंपरा  है। परन्तु संसद को ब्लैकआउट कर तेलंगाना बिल पारित कर देना। देश को गुमराह कर ‘‘लोकपाल बिल’’ को पास करवाना, अपने राजनैतिक फायदे के लिये ‘‘दागी बिल’’ पर आपसी सहमती बनाना। इसीप्रकार जो लोग देश के हिसाब-किताब की पल-पल की खबर रखना चाहतें हैं वे ही लोग अपना हिसाब देना नहीं चाहते? ऐसे कृत्य को बहुमत की मोहर लगा देना, लोकतंत्र के लिये घातक माना जाना चाहिये। ऐसा बहुमत जो लोकतंत्र की मूल भावना को तहसनहस करता हो, ऐसा बहुमत जो देश को लूटने के लिये बनाया जाता हो और लुटरों को सुरक्षा प्रदान करता हो उसे कदापी बहुमत नहीं माना जा सकता भले ही पूरी की पूरी संसद उसके पक्ष में ही क्यों ना खड़ी हो। हमें इसके उन पहलुओं पर भी गंभीरता से सोचना होगा कि ‘अल्पमत’ की जायज बातों को कहीं ‘बहुमत’ से दबाया तो नहीं जा रहा? यदि ऐसा है तो यह लोकतंत्र के लिये शुभ संकेत नहीं है।

जो लोग अब तक देश लूटते रहे जाते-जाते इनलोगों ने सदन के भीतर लोकतंत्र को लूटने का अवसार भी नहीं चुके। ऐसे में सवाल उठता है कि आगामी लोकसभा चुनाव में हम जिसे विकल्प के तौर पर देख रहें हैं वह कहीं इन्हीं लुटरों का सरदार तो नहीं?

आगामी लोकसभा की तैयारी अब जोरों पर है। अब यही लोग संदन से निकल कर हमारे वोट को लूटने आनेवाले है। कोई हमारी भावना को लूटेगा तो कोई हमारे विचारों को। सबको सत्ता की भूख है। देश की परवा इनमें से किसी को नहीं है। देश की सोचने वाला शख्स इनके विचारों में अराजकता फैला रहा। वह शहरी नकस्लवादी है। उन्हें सरकार चलानी नहीं आती। वह पागल है। उनके पास कोई आर्थिक नीति नहीं। उसको पता नहीं देश की विदेश नीति क्या होनी चाहिये? हमें सोचना होगा कि हमें देश के लूटरों में से किनको चुनना है कि एक वह पागल को चुनना है जो देश के लिये मरने को तैयार खड़ा है। जिसे सत्ता नहीं चाहिये उसे देश की भ्रष्ट व्यवस्था में सुधार चाहिये। 
जयहिन्द!!
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16वीं लोकसभा की उलटी गिनती शुरू

कोलकाताः (दिनांक 2 मार्च 2014)

मैं व्यक्तिगत तौर पर मोदीजी का काफी प्रशंसक रहा हूँ। परन्तु मोदी के देशभक्तों ने मुझे काफी निराश कर दिया। मोदीजी के देशभक्तों ने तो खुले रूप से यह नारा दे दिया कि जो मोदी अर्थात आरएसएस को अर्थात भाजपा को वोट नहीं दे, वह देशद्रोही है। इसप्रकार मोदीजी के लक्ष्य 272 सांसद जो संसद में बैठने वाले हैं वे तो देशभक्त माने जायेगें बाकी बचे 271 सांसद देशद्रोहियों के मतों से जीतकर संसद में जानेवाले हैं। अर्थात इनकी मानें तो देश की 65 प्रतिशत आबादी देशद्रोहियों की श्रेणी में आनेवाली है। भाजपा ने कहीं भी इस बात का खंडन नहीं किया कि यह अफवाह या इस तरह की बात सही नहीं हैं ना ही वह अपने समर्थकों को मना ही कर रही है कि वे ऐसी बातें ना करें। एक तरफ तो राजनाथ सिंहजी, मोदी जी मुसलमानों को समझाने में लगे हैं तो दूसरी तरफ इस तरह की बातों से उनको सीधे-सीधे तारगेट भी किया जा रहा है। खैर!!!

आईये मोदी जी के भविश्य पर एक नजर दौड़ातें है-
सपा, बसपा, बिजूजनता दल, सीपीआई, सीपीएम, एनसीपी, डीएमके, टीएमसी इनकी वर्तमान 15वीं लोकसभा में 122 सीटें हैं। जो आगामी लोकसभा चुनाव में भी लगभग इन्हीं आंकड़ों को छूने वाली है। यदि उत्तरप्रदेश में सपा, बसपा को नूकशान होता है तो बंगाल में उतनी ही सीटों का ‘टीएमसी’ को फायदा होता दिखाई दे रहा है।  इन 122 सीटों में 50से 60 सीटें ऐसी हैं जिनमें भाजपा का कोई अतापता ही नहीं है इनमें बंगाल की 41 सीटें भी है।  ना ही इन सीटों पर मोदी फेक्टर कुछ काम कर रहा है। 

बची 421 सीटों पर हम पैनी नजर दौड़ाते हैं तो लगभग 70-80 सीटें जिनमें आंचलिक व छोटी-छोटी पार्टियों का कब्जा बरकरार रहेगा। बची 351 सीटों पर त्रिकोणात्मक संघर्ष है। इसमें कांग्रेस पार्टी, जदयू, आरजेडी, एडीएमके, ‘आप’ यदि सबको मिलाकर भी 150 सीटें मान ली जाती है तो 201 सीटें मोदीजी के खाते में बचती है। इन 201 सीटों में वे दल भी शामिल है जो ‘भाजपा गठबंधन’ से खुद को जोड़ चुके हैं। 71 सीटें किसके सहयोग से जूटाते हैं यह अभी देखना बाकी है।
भाजपा जिस प्रकार नाटकीय रूप से प्रचार में जूटी है कि पूरे भारत में मोदी की हवा बह रही है। उपरोक्त परिणाम से तो इस हवा की हवा ही निकलती दिखाई देती है मुझे। जयहिन्द!!

नोटः किसी को इस आंकड़ों में कोई भूल नजर आती हो तो वह अपनी बात तत्थ के साथ रख सकते हैं।
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