इस देश में ‘‘भारत माता की जय’’ बोलना सांप्रदायिकता कहलाती है, अल्पसंख्यकों को नाराज करना जैसा है। संसद के भीतर जो सांसद ‘‘बंदे मातरम्’’ बोलने में हिचकिचाते हैं। भारत के गुणगान में जो गीत तक गुनागुनाने में जिनका धर्म खुद को अपमानित समझता हो। वे लोग कैसे देश के प्रति वफ़ादार हो सकते? इन सबके उपरान्त हमारा देश धर्मनिरपेक्षता को स्वीकारता है। हम इसका सम्मान भी करते हैं, परन्तु इसका यह अर्थ नहीं हो सकता कि हम खुद को उनके हवाले कर दें? हम कुछ भी कहें तो सांप्रदायिक और वे दंगा करें, आतंकियों को पनाह दें तो धर्मनिरपेक्ष? यह धर्मनिरपेक्षता का पैमाना नहीं हो सकता। यदि समय से हम नहीं चेते तो, आने वाली पौध हमें कभी नहीं माफ करेगी।
जिस प्रकार एक मांसाहारी इंसान (चंद अपवादों को छोड़ दें तो) निरामिस नहीं बन सकता चुकीं उसको खुन खाने की लत जो लग जाती है। उसी प्रकार एक भारत में रहने वाले अल्पसंख्यक अपने को कभी भी सुरक्षित नहीं मानते, भले ही उनके चलते आप खुद को क्यों न असुरक्षित महसूस करने लग जाएं। आगामी 2014 के लोकसभा चुनाव को लेकर जिस प्रकार देश में एक व्यक्ति को लेकर आशंकओं का वातावरण पैदा किया जा रहा है इसमें देश के कुछ धर्मनिरपेक्षता की खाल में छिपे सांप्रदायिक चेहरे बेनकाब होते जा रहे हैं। जो यह सोचते हैं की देश में धर्मनिरपेक्षता की रक्षा सिर्फ वे ही लोग कर सकते हैं। लेकिन जब पाकीस्थान या बंगलादेश में रह रहे अल्पसंख्यकों के साथ जो सांप्रदायिक व्यवहार होता है तब इनकी धर्मनिरपेक्षता, इनकी यही सोच, इनका यही बयान, हिन्दू मां बहनों के साथ हो रहे अत्याचार के दर्द को यह वर्ग नहीं समझ पाता।
पिछले दिनों नोबल पुरस्कार प्राप्त भारत के महान अर्थशास्त्री श्री अर्मत्य सेन जी जिसके सिद्धान्तों से विश्व के किसी भी देश के एक भी ग्रामीण या ग्राम का भला नहीं हो सका ने एक प्रश्न के जबाब में अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि
‘‘असुरक्षित महसूस करने के लिए मुझे अल्पसंख्यक समूदाय का सदस्य होना होगा।’’ धर्मनिरपेक्षता की नई व्याख्या करने वाले श्री सेन को एक सलाह है कि कुछ दिन पड़ोस के देश में रह लेते वहां पर जो अनुभव उनको होगा उसके लिए उनको धर्म बदलने की कोई जरूरत नहीं होगी। आप स्वतः ही अल्पसंख्यक हो जाएंगे संभव हो तो अपने परिवार को भी साथ रख लिजिऐगा।
भारत के 40 प्रतिशत गांवों की स्थिति पाकीस्तान जैसी बनती जा रही हैं हिन्दूओं के नाबालिक बच्चियों को यही अल्पसंख्यक समूदाय उठा-उठाकर ले जा रहा, 15-20 दिनों तक उसको किसी घर में बन्द रखता है फिर उसका धर्म परिवर्तन कर किसी मुसलमान से जबरन निकाह करा देता है। आतंक का यह वातावरण पूरे भारत में सनै-सनै तेजी से फैलता जा रहा है भारत का कानून मूकदर्शक बना देख रहा है। श्री अर्मत्य सेन को अल्पसंख्यक बनकर उनके दर्द का अहसास करने की जगह भारत के उन इलाकों के दर्दनाक दृश्य को भी देखने का प्रयास करना चाहिए जहां भारत के अंदर ही हिन्दुओं के सैकड़ों परिवार खुद को असुरक्षित महसूस करने लगे हैं। मुसलमानें के काल के ग्रास बनते जा रहे हैं। श्री अर्मत्य सेन का खुद का मत किसको भारत का प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहतें हैं या किसको नहीं, यह उनकी व्यक्तिगत राय हो सकती है। परन्तु इस बात का देश की पौंगी धर्मनिरपेक्षता से कोई तालमेल नहीं बैठाया जा सकता। जिसप्रकार भारत में धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा गढ़ी जा रही है उसमें भारत के उन बुद्धिजीवि वर्ग का प्रयोग किया जा रहा है जिसका विश्वव्यापि माहौल बनता या बिगड़ता ऐसे खतरनाक खेल को ना खेला जाए अन्यथा इसके परिणाम गुजरात से भी भयानक हो सकते हैं।
इस देश में
‘‘भारत माता की जय’’ बोलना सांप्रदायिकता कहलाती है, अल्पसंख्यकों को नाराज करना जैसा है। संसद के भीतर जो सांसद
‘‘बंदे मातरम्’’ बोलने में हिचकिचाते हैं। भारत के गुणगान में जो गीत तक गुनागुनाने में जिनका धर्म खुद को अपमानित समझता हो। वे लोग कैसे देश के प्रति वफ़ादार हो सकते? इन सबके उपरान्त हमारा देश धर्मनिरपेक्षता को स्वीकारता है। हम इसका सम्मान भी करते हैं, परन्तु इसका यह अर्थ नहीं हो सकता कि हम खुद को उनके हवाले कर दें? हम कुछ भी कहें तो सांप्रदायिक और वे दंगा करें, आतंकियों को पनाह दें तो धर्मनिरपेक्ष? यह धर्मनिरपेक्षता का पैमाना नहीं हो सकता। यदि समय से हम नहीं चेते तो, आने वाली पौध हमें कभी नहीं माफ करेगी।
Date: 23.07.2013/ amartya sen
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