66वें स्वतंत्रता दिवस के पूर्व संध्या पर देश के 13वें राष्ट्रपति महामहिम श्री प्रणव मुखर्जी ने देश के नाम अपने संदेश में कहा कि लोकतांत्रिक संस्थाओं पर प्रहार होने से देश में अव्यवस्था फैल जाएगी। आपने स्वीकार किया कि भ्रष्टाचार के खिलाफ जनता का आंदोलन जायज है। जहां एक तरफ आपने विधायिका के महत्व को समझाने का प्रयास किया वहीं दूसरी तरफ आपने जनता के आक्रोश को भी जायज ठहराते हुए संसद को ही नसीहत दे डाली कि कभी-कभी जनता अपना धैर्य खो देती है पर इसे लोकतांत्रिक संस्थाओं पर प्रहार का बहाना नहीं बनाया जा सकता। उपरोक्त संदेश कई तरह से उलझाव पैदा करने वाला है कि महामहिम जी किसे यह बताना चाहते हैं कि भ्रष्टाचार के लिए कौन जिम्मेदार है। संसद का कतरा-कतरा भ्रष्टाचार के बलि चढ़ चुका है। प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह जी एक हाथ में अपने खुद के ईमानदार होने का प्रमाण पत्र लिए, देश को गठबंधन धर्म की मजबूरी बताते नहीं थकते। मानो हमने यह स्वीकार कर लिया है कि देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था इतनी लचर और लाचार हो चुकी है कि चोरों को चुनना ही लोकतंत्र का लक्ष्य रह जाता है। जो लोग इस लोकतंत्र के रक्षक बन अपनी आहुति दें वे चोर और जो चुनकर या पिछले दरवाजे से संसद में पंहुच जाए वे सभी ईमानदार और लोकतंत्र के रक्षक एवं विधायिका के निर्माता बन जाते हैं। संभवतः लोकतंत्र की इसी परिभाषा को अपने संदेश के माध्यम से चिन्हीत करना चाहते हैं हमारे राष्ट्रपति महामहिम श्री प्रणव मुखर्जी जी।
पिछले दिनों श्री अण्णा हजारे व उनकी टीम ने रामलीला मैदान में अपना दम तौड़ दिया। कल बाबा रामदेव व उनकी टीम भी दम तौड़ती नजर आई। प्रश्न यह नहीं है कि किसने बाजी मारी या किसने हारी। प्रश्न यह है कि संसद इतने संवेदनशील मामले पर चुप क्यों? संसद के अन्दर चुनकर गये और खुद को चुनावा कर गये नेताओं की लम्बी कतार देश को गुमराह क्यों कर रही है? आश्चर्य की बात है कि लोकतंत्र के प्रहरी संसद के अन्दर 543 सांसद जो जनता के सीधे प्रतिनिधि होते हैं और 245 सांसद जो पिछले दरवाजे से देश के कर्णधार बनकर संसद में पंहुचते है। इन सब ईमानदार और देशभक्तों को आखिर उस समय सांप क्यों सूंध जाता है जब भ्रष्टाचार और काले धन की बात सामने आती है? संसद की गरिमा और इसकी मर्यादा की रक्षा करने वाले ये चुने हुए सांसदों पर जब जनता द्वारा विचारों का हमला होता है तो वे संसद और संसदों की गरिमा की की दुहाई देते नहीं थकते। वहीं जब यही सांसद जनता पर तीखे व्यंग्य करते हैं तो जैसे ‘हम भी रोजा कर रहें हैं। या रामलीला तो हर साल हाती है।’’ जैसी अपमानजनक टिप्पणी करते नहीं थकते तो उस समय इनको अपनी ईमानदारी और संसद की मर्यादा का ख्याल क्यों नहीं आता। वहीं जब कुछ सांसदों पर कोई आक्षेप आता है या इनको चोर-बेईमान कहा जाता है तो इनको संसद की पवित्रता का आभास होने लगता है। संसद लोकतंत्र का पवित्र मंदिर जरूर है पर इसमें बैठे लोगों की मंशा ने इसकी पवित्रता को हर तरह से अपवित्र करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है। पता नहीं इनकी देश भक्ति व इनका स्वाभिमान भी उस समय कहां चरने चला जाता है जब चंद लोगों के चलते पूरी संसद अपवित्र नजर आने लगती है?
शम्भु चौधरी
सचिव, राजनैतिक चेतना मंच
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