धर्म के आधार पर देश के विभाजन पश्चात व आजादी के बाद तेजी से एक शब्द ‘‘धर्मनिरपेक्षता’’ भारत की राजनीति में अपनी केन्द्रीय भूमिका निभाने लगी। इसके गहराई में जाकर देखा जाए तो हमें ज्ञात होता है कि ‘‘धर्मनिरपेक्षता’’ का अर्थ है एक विशेष धर्म के कट्टरवादी ताकतों को मजबूती प्रदान करना मात्र धर्मनिरपेक्षता का मुख्य लक्ष्य है देश की तमाम राजनैतिक चेहरे धर्मनिरपेक्षता को वोट बैंक की कुंजी मानते हैं और उन कट्टरवादी ताकतों द्वारा संकलित वोटों से खुद की राजनीति को मजबूत बनाये रखना, जो ऐसा करने में सफल रहे हैं वैसे लोग अपने आपको ‘‘धर्मनिरपेक्ष’’ मानते हैं। जबकि दूसरी तरफ हिन्दूवादी कट्टरवादी ताकतों को देश में सांप्रदायिक ताकत माना जाता है। व इसको केन्द्र कर आज देश की राजनीति दो हिस्सों मे स्पष्ट दिखाई देती है। आज सत्ता के बचाये रखने के लिए देश की एक बड़ी राजनीति दल ने इस हथियार का जम कर इस्तेमाल किया है। जब उस दल पर परिवारवाद का आरोप लगा और सत्ता से बहार आ गई तो उसने सांप्रदायिक शब्द का भरपूर प्रचार कर देश के बामदल सहित समाजवादियों तक को अपने पक्ष में ला खड़ा करने में सफलता पा ली। यह बात अलग है कि बामदल की सिद्धांतहीन दलदली राजनीति ने उसको जहाँ देश की राजनीति में हाशिये पर ला खड़ा किया है पर अभी भी इसके सर पर सांप्रदायिकता का भूत सवार है। जब भी संसद में कोई बहस होती है तो वो अपने को इस कदर बचाना चाहती है कि जैसे वो किसी महखाने से मुंह छिपाकर जाना चाहता हो। मानो सबका लक्ष्य एक है कि देश की मुस्लिम कट्टरवादी ताकतों के एक वर्ग को कौन कितना लुभा सकता है इस बात कि हर तरफ हौड़ लगी है। असम की घटना के पश्चात पिछले दिनों देश में जो कुछ भी हमें देखने को मिला इसके साथ ही सरकारी व अन्य राजनीति दलों की टिप्पणियों पर नजर दौड़ाई जाए तो हमें यह बात ही नहीं समझ पा रहे हैं कि देश में बंगलादेशी मुसलमान इतने ताकतवर हो गए कि उनके कुप्रचार से देश की ही असमिया समाज को अपनी ही जमीं, अपने ही वतन में खुद को असुरक्षित महसूस करना पड़ा और बड़ी संख्या में देश के विभिन्न हिस्सों से उनके पलायन से हमें यह तो सोचना ही होगा कि देश में मुस्लिम कट्टरवादी ताकतों ने भारतीय धर्मनिरपेक्ष राजनैतिक स्वरूप को तार-तार कर दिया है। कुछ इस्लामिक संगठनों न सिर्फ मुम्बई में पाकिस्तान के झंडा ही नहीं फहराया, साथ ही उनके आकाओं ने यह भी ऐलान कर दिया कि अब जल्द ही समूचे भारत में इस्लाम का झंडा फहरा दिया जाएगा। इन मुस्लिम कट्टरवादी ताकतों के सामने हमारी धर्मनिरपेक्षता पलक झपते ही ताश के पत्ते की तरह बिखर कर उनका तमाशा देखता रहा। सरकार की तरफ से कोई कार्यवाही न होकर हिन्दूवादी नेताओं पर अंकुश लगाया जाना इस बात को बल प्रदान करता है कि देश किस कदर एक धर्म विशेष के वोट बैंक की तरफ सिमटता जा रहा है। असम की घटना व असमियों और मणिपुरीयों को जिस प्रकार से भयभीत करने में देश की मुस्लिम कट्टरवादी ताकतों ने अपनी भूमिका निभाई, इससे इस बात में कतई संदेह नहीं रह गया कि अब धर्मनिरपेक्षता की आड़ में सत्ता की राजनीति करने वाली ताकतों को यह बताना जरूरी हो गया है कि ‘‘धर्मनिरपेक्षता’’ वास्तव में वह नहीं कि वह सत्ता से चिपकने के लिए किसी दूसरे दल को सत्ता से अलग रखा जाए। ‘‘धर्मनिरपेक्षता’’ का अर्थ है कि देश में सभी धर्म में समभाव बना रहे, ना कि वह सत्ता को प्राप्त करने व सत्ता से किसी दल विशेष को दूर रखने के प्रयोग में लाया जाना चाहिए। हिन्दुत्वाद से देश मजबूत ही होगा जबकि मुस्लिम कट्टरवादी ताकातों को जितना बल दिया जाएगा देश की सार्वभैमिकता को उतना ही खतरा पैदा होता जा रहा है। मुस्लिम समुदायों के वोटों को लेकर सत्ता का सौदा न किया जाए। यदि इस सौदेबाजी पर तत्काल प्रभाव से रोक न लगाई तो हर प्रान्त भारत महासंध से अपनी सुरक्षा के लिए अलग होने के लिए मजबूर भी हो सकता है।
शुक्रवार, 24 अगस्त 2012
मंगलवार, 14 अगस्त 2012
संसद की पवित्रता - शम्भु चौधरी
66वें स्वतंत्रता दिवस के पूर्व संध्या पर देश के 13वें राष्ट्रपति महामहिम श्री प्रणव मुखर्जी ने देश के नाम अपने संदेश में कहा कि लोकतांत्रिक संस्थाओं पर प्रहार होने से देश में अव्यवस्था फैल जाएगी। आपने स्वीकार किया कि भ्रष्टाचार के खिलाफ जनता का आंदोलन जायज है। जहां एक तरफ आपने विधायिका के महत्व को समझाने का प्रयास किया वहीं दूसरी तरफ आपने जनता के आक्रोश को भी जायज ठहराते हुए संसद को ही नसीहत दे डाली कि कभी-कभी जनता अपना धैर्य खो देती है पर इसे लोकतांत्रिक संस्थाओं पर प्रहार का बहाना नहीं बनाया जा सकता। उपरोक्त संदेश कई तरह से उलझाव पैदा करने वाला है कि महामहिम जी किसे यह बताना चाहते हैं कि भ्रष्टाचार के लिए कौन जिम्मेदार है। संसद का कतरा-कतरा भ्रष्टाचार के बलि चढ़ चुका है। प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह जी एक हाथ में अपने खुद के ईमानदार होने का प्रमाण पत्र लिए, देश को गठबंधन धर्म की मजबूरी बताते नहीं थकते। मानो हमने यह स्वीकार कर लिया है कि देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था इतनी लचर और लाचार हो चुकी है कि चोरों को चुनना ही लोकतंत्र का लक्ष्य रह जाता है। जो लोग इस लोकतंत्र के रक्षक बन अपनी आहुति दें वे चोर और जो चुनकर या पिछले दरवाजे से संसद में पंहुच जाए वे सभी ईमानदार और लोकतंत्र के रक्षक एवं विधायिका के निर्माता बन जाते हैं। संभवतः लोकतंत्र की इसी परिभाषा को अपने संदेश के माध्यम से चिन्हीत करना चाहते हैं हमारे राष्ट्रपति महामहिम श्री प्रणव मुखर्जी जी।
पिछले दिनों श्री अण्णा हजारे व उनकी टीम ने रामलीला मैदान में अपना दम तौड़ दिया। कल बाबा रामदेव व उनकी टीम भी दम तौड़ती नजर आई। प्रश्न यह नहीं है कि किसने बाजी मारी या किसने हारी। प्रश्न यह है कि संसद इतने संवेदनशील मामले पर चुप क्यों? संसद के अन्दर चुनकर गये और खुद को चुनावा कर गये नेताओं की लम्बी कतार देश को गुमराह क्यों कर रही है? आश्चर्य की बात है कि लोकतंत्र के प्रहरी संसद के अन्दर 543 सांसद जो जनता के सीधे प्रतिनिधि होते हैं और 245 सांसद जो पिछले दरवाजे से देश के कर्णधार बनकर संसद में पंहुचते है। इन सब ईमानदार और देशभक्तों को आखिर उस समय सांप क्यों सूंध जाता है जब भ्रष्टाचार और काले धन की बात सामने आती है? संसद की गरिमा और इसकी मर्यादा की रक्षा करने वाले ये चुने हुए सांसदों पर जब जनता द्वारा विचारों का हमला होता है तो वे संसद और संसदों की गरिमा की की दुहाई देते नहीं थकते। वहीं जब यही सांसद जनता पर तीखे व्यंग्य करते हैं तो जैसे ‘हम भी रोजा कर रहें हैं। या रामलीला तो हर साल हाती है।’’ जैसी अपमानजनक टिप्पणी करते नहीं थकते तो उस समय इनको अपनी ईमानदारी और संसद की मर्यादा का ख्याल क्यों नहीं आता। वहीं जब कुछ सांसदों पर कोई आक्षेप आता है या इनको चोर-बेईमान कहा जाता है तो इनको संसद की पवित्रता का आभास होने लगता है। संसद लोकतंत्र का पवित्र मंदिर जरूर है पर इसमें बैठे लोगों की मंशा ने इसकी पवित्रता को हर तरह से अपवित्र करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है। पता नहीं इनकी देश भक्ति व इनका स्वाभिमान भी उस समय कहां चरने चला जाता है जब चंद लोगों के चलते पूरी संसद अपवित्र नजर आने लगती है?
शम्भु चौधरी
सचिव, राजनैतिक चेतना मंच