मंगलवार, 25 नवंबर 2008

कुंवर नारायण को ज्ञानपीठ पुरस्कार - कैलाश वाजपेयी


वर्ष 2005 के ज्ञानपीठ पुरस्कार के लिए हिन्दी के कवि कुंवर नारायण को चुना गया है। वर्ष 2006 के इस पुरस्कार के लिए कोंकणी के रवीन्द्र केलकर और संस्कृत के विद्वान सत्यव्रत शास्त्री को संयुक्त रूप से चुना गया है। कुँवर नारायण को 41वाँ और केलकर तथा शास्त्री को 42वाँ ज्ञानपीठ पुरस्कार संयुक्त रूप से दिया जाएगा। पुरस्कार स्वरूप 7 लाख रुपए दिए जाएँगे। ज्ञानपीठ द्वारा विज्ञप्ति के अनुसार कोंकणी व संस्कृत के लिए पहली बार ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किया गया है। नई कविता आंदोलन के सशक्त हस्ताक्षर नारायण अज्ञेय द्वारा संपादित तीसरा सप्तक (1959) के कवियों में रहे हैं।

कुँवर नारायण हमारे दौर के सर्वश्रेष्ठ साहित्यकार हैं। उनकी काव्ययात्रा 'चक्रव्यूह' से शुरू हुई। इसके साथ ही उन्होंने हिन्दी के काव्य पाठकों में एक नई तरह की समझ पैदा की।

उनके संग्रह 'परिवेश हम तुम' के माध्यम से मानवीय संबंधों की एक विरल व्याख्या हम सबके सामने आई। उन्होंने अपने प्रबंध 'आत्मजयी' में मृत्यु संबंधी शाश्वत समस्या को कठोपनिषद का माध्यम बनाकर अद्भुत व्याख्या के साथ हमारे सामने रखा। इसमें नचिकेता अपने पिता की आज्ञा, 'मृत्य वे त्वा ददामीति' अर्थात मैं तुम्हें मृत्यु को देता हूँ, को शिरोधार्य करके यम के द्वार पर चला जाता है, जहाँ वह तीन दिन तक भूखा-प्यासा रहकर यमराज के घर लौटने की प्रतीक्षा करता है। उसकी इस साधना से प्रसन्न होकर यमराज उसे तीन वरदान माँगने की अनुमति देते हैं। नचिकेता इनमें से पहला वरदान यह माँगता है कि उसके पिता वाजश्रवा का क्रोध समाप्त हो जाए।

नचिकेता के इसी कथन को आधार बनाकर कुँवर नारायणजी की जो कृति 2008 में आई, 'वाजश्रवा के बहाने', उसमें उन्होंने पिता वाजश्रवा के मन में जो उद्वेलन चलता रहा उसे अत्यधिक सात्विक शब्दावली में काव्यबद्ध किया है। इस कृति की विरल विशेषता यह है कि 'अमूर्त'को एक अत्यधिक सूक्ष्म संवेदनात्मक शब्दावली देकर नई उत्साह परख जिजीविषा को वाणी दी है। जहाँ एक ओर आत्मजयी में कुँवरनारायण जी ने मृत्यु जैसे विषय का निर्वचन किया है, वहीं इसके ठीक विपरीत 'वाजश्रवा के बहाने'कृति में अपनी विधायक संवेदना के साथ जीवन के आलोक को रेखांकित किया है।
यह कृति आज के इस बर्बर समय में भटकती हुई मानसिकता को न केवल राहत देती है, बल्कि यह प्रेरणा भी देती है कि दो पीढ़ियों के बीच समन्वय बनाए रखने का समझदार ढंग क्या हो सकता है। उन्हें पढ़ते हुए, मुझे लगता है कि कुँवर नारायणजी हिन्दी कविता के पिछले ५५ वर्ष के इतिहास के संभवतः श्रेष्ठतम कवि हैं।


कुंवर नारायण की कुछ कविताएँ


उदासी के रंग


उदासी भी
एक पक्का रंग है जीवन का
उदासी के भी तमाम रंग होते हैं
जैसे
फ़क्कड़ जोगिया
पतझरी भूरा
फीका मटमैला
आसमानी नीला
वीरान हरा
बर्फ़ीला सफ़ेद
बुझता लाल
बीमार पीला
कभी-कभी धोखा होता
उल्लास के इंद्रधनुषी रंगों से खेलते वक्त
कि कहीं वे
किन्हीं उदासियों से ही
छीने हुए रंग तो नहीं हैं ?
******


( समकालीन सृजन के ‘कविता इस समय’ अंक से साभार )


दुनिया की चिन्ता


छोटी सी दुनिया
बड़े-बड़े इलाके
हर इलाके के
बड़े-बड़े लड़ाके
हर लड़ाके की
बड़ी-बड़ी बन्दूकें
हर बन्दूक के बड़े-बड़े धड़ाके
सबको दुनिया की चिन्ता
सबसे दुनिया को चिन्ता ।
******


( काव्य संकलन इन दिनों से साभार )


यकीनों की जल्दबाज़ी


एक बार खबर उड़ी
कि कविता अब कविता नहीं रही
और यूं फैली
कि कविता अब नहीं रही !
यकीन करनेवालों ने यकीन कर लिया
कि कविता मर गई
लेकिन शक करने वालों ने शक किया
कि ऐसा हो ही नहीं सकता
और इस तरह बच गई कविता की जान
ऐसा पहली बार नहीं हुआ
कि यकीनों की जल्दबाज़ी से
महज़ एक शक ने बचा लिया हो
किसी बेगुनाह को ।
कभी पाना मुझे
तुम अभी आग ही आग
मैं बुझता चिराग
हवा से भी अधिक अस्थिर हाथों से
पकड़ता एक किरण का स्पन्द
पानी पर लिखता एक छंद
बनाता एक आभा-चित्र
और डूब जाता अतल में
एक सीपी में बंद
कभी पाना मुझे
सदियों बाद
दो गोलार्धों के बीच
झूमते एक मोती में ।
*******


( समकालीन सृजन के ‘कविता इस समय‘ अंक से साभार )


जिस समय में


जिस समय में
सब कुछ
इतनी तेजी से बदल रहा है
वही समय
मेरी प्रतीक्षा में
न जाने कब से
ठहरा हुआ है !
उसकी इस विनम्रता से
काल के प्रति मेरा सम्मान-भाव
कुछ अधिक
गहरा हुआ है ।
******


(समकालीन सृजन के ‘कविता इस समय’ अंक से साभार)


दीवारें


अब मैं एक छोटे-से घर
और बहुत बड़ी दुनिया में रहता हूं
कभी मैं एक बहुत बड़े घर
और छोटी-सी दुनिया में रहता था
कम दीवारों से
बड़ा फ़र्क पड़ता है
दीवारें न हों
तो दुनिया से भी बड़ा हो जाता है घर ।

1 टिप्पणी:

  1. वर्ष 2005 के ज्ञानपीठ पुरस्कार के लिए हिन्दी के कवि कुंवर नारायण को चुने जाने के लिए बहुत बहुत बधाईयाँ

    regards

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