ज्योतिप्रसाद अगरवाला का जन्म 17 जून सन् 1903 को डिब्रूगढ़ अंचल के तामुलबारी चाय बगीचे (असम) में हुआ। उन्होंने हाईस्कूल की शिक्षा डिब्रूगढ़ तथा तेजपुर में प्राप्त की। सन् 1921 में वे तेजपुर सरकारी उच्च विद्यालय से 'प्रवेशिका निर्वाचन' परीक्षा में उत्तीर्ण होकर कलकत्ता में चित्तरंजन दास द्वारा स्थापित राष्ट्रीय विद्यापीठ से द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण हुए। वह समय था महात्मा गांधी द्वारा संचालित असहयोग का। ज्योतिप्रसाद ने उच्च शिक्षा से मुँह मोड़कर असहयोग आन्दोलन में सक्रिय रूप से भाग लेने लगे। आन्दोलन धीमा होने पर कलकत्ता के नेशनल कॉलेज में अध्ययन कर कुछ दिन अपने ताऊ चन्द्रकुमार अगरवाला द्वारा स्थापित 'न्यू प्रेस' के संचालन में सहयोग दिया। सन् 1926 में उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिये वे इंग्लैण्ड चले गये। वहाँ एडिनबरा विश्वविद्यालय में कुछ दिनों तक अध्ययन करने के बाद जर्मनी में सात माह तक चलचित्र तकनीक संबंधी प्रशिक्षण लिया। 1930 में स्वदेश वापसी के पश्चात आजादी की लड़ाई में सक्रिय रूप से भागीदारी । 1932 में 15 महीनों का सश्रम कारावास और 500 रुपये का जुर्माने की सजा। 14 वर्ष की आयु में 'शोणित कुँवरी नाटक' की रचना। अन्तिम समय तक नाटक, कविता, जीवनी, शिशु-काव्य और साहित्य की अन्य विधाओं में कार्य। रचना एवं स्वर संयोजन में अभिनवता से भरे असंख्य गीतों के माध्यम से असमीया संगीत को नवरूप प्रदान । 1934 में भोलागुरि चाय बगीचे में अस्थायी 'चित्रवन स्टूडियो' स्थापित कर, सर्वप्रथम असमीया चलचित्र 'जयमती' का निर्माण। 1935 में जयमती का प्रदर्शन। 1936-37 में विष्णुप्रसाद राभा के साथ नाटक जयमती और शोणित कुँवरी के ग्रामोफोन रेकॉर्ड निर्माण। 1937 में तेजपुर में 'जोनाकी' चलचित्र-गृह का निर्माण। 1939 में द्वितीय असमीया चलचित्र 'इन्द्रमालती का निर्माण। 1940 में तेजपुर में संगीत विद्यालय की स्थापना। असम में एक दिन की सरकारी छुट्टी इनके जन्म दिन पर मनायी जाती है। अनके करीब 367 गीत (सभी मूल असमीया भाषा में) प्रकाश में आये। उन्होंने कुछेक गीतों के लिए स्वयं स्वरलिपि तैयार की थी। जसकी अपनी कुछ विशेषताएँ हैं। इसी कारण असम के संगीत प्रेमियों ने इस संगीत को 'ज्योति संगीत' की संज्ञा दी। जिस प्रकार ' रवीन्द्र संगीत' में भाव, भाषा, स्वर और कल्पना का समन्वय हुआ है उसी प्रकार ज्योतिप्रसाद के गीतों में भी समन्वय के दर्शन होते हैं। ज्योतिप्रसाद ने असमीया संगीत के मूल रूप को अक्षुण्ण रखते हुए, पाश्चात्य संगीत का समावेश कर, एक पथ-प्रदर्शक के रूप में असमीया साहित्य को स्मृद्ध तो किया ही असमीया समाज में नई चेतना का संचार भी किया।
आप प्रकृतितः कवि थे। उनके गद्य में भी उनके कवित्व की सुषमा और सौरभ व्याप्त है। संख्या की दृष्टि से उनकी कविताएँ कम हैं - उनकी 50 सम्पूर्ण कविताएँ एवं 12 शिशु-कविताएँ प्रकाशित ( सभी असमीया भाषा में) हुई हैं। किन्तु काव्य, भाव एवं शिल्प की दृष्टि से वे अनुपम हैं। इसी कारण असमीया काव्य साहित्य में उन्हें शीर्ष स्थान प्राप्त है। कवि के रूप में ज्योतिप्रसाद में कुछ विशेष गुण हैं। उनकी कविता में असमीया जातीयता के भाव की प्रधानता होने पर भी भारतीय तथा विश्वजनीन भाव के साथ कहीं विरोध नहीं झलकता। जातीयता के प्रति निष्ठा रकह्ते हुए, उससे दृढ़तापूर्वक जुड़े रहते हुए भी वे संकीर्ण जातीयता से ऊपर अठने में सक्षम हैं।
ज्योतिप्रसाद को असम में लोग 'रूपकुँवर' के नाम से जानते -पहचानते हैं। यह शब्द उनके नाम का एक अभिन्न अंग बन गया है। ज्योतिप्रसाद को 'रूपकुँवर' की उपाधि किस प्रकार मिली, इस विषय में कई विचार और भ्रान्तियाँ हैं। इस सम्बन्ध में असम के सुप्रसिद्ध कवि आनन्दचन्द्र बरुवा ने कहा है, " अखबार में काम करते समय ज्योतिप्रसाद के 'चित्रवन' में दो दिन रहकर आया और 'रूपकुँवर ज्योतिप्रसाद' नाम से एक लेख प्रकाशित करवाया । मेरे द्वारा कल्पित यह उपाधी लोकप्रिय होकर अजर-अमर हो गयी, इसका मुझे संतोष है। आपके द्वारा रचित कुछ रचनाओं का हिन्दी अनुवाद असम के देवीप्रसाद बागड़ोदिया जी ने की है। इनखी एक पुस्तक 'ज्योति प्रभा' का प्रथम संस्करण जनवरी 1995 एवं दूसरा संस्करण 2003 में प्रकाशित हुआ है। 650 पृष्ठ की यह पुस्तक का मूल्य 250/- + डाकखर्च अतिरिक्त रखा गया है।
पुस्तक प्राप्ति स्थान:
ई- हिन्दी साहिय सभा या आप सीधे श्री देवी प्रसाद बागड़ोदिया, बागड़ोदिया निवास, ज्योतिनगर, डिब्रूगढ़ - 786005, फोन नम्बर: 09435032796 से भी प्राप्त कर सकतें हैं।
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ज्योतिप्रसाद की कुछ रचनाएँ नीचे दे रहे हैं।
सभी गीत असमीया मूल से हिन्दी में अनुवाद श्री देवी प्रसाद बागड़ोदिया के द्वारा :-
1. रुपहले पानी में सोने की नाव
रूपहले पानी में सोने की नाव
खोल दे रे
खोल दे, खोल दे, खोल दे रे।
तितली के पंखों से उड़ते हैं पाल
फूल के पत्तों की छाजन
वह नील आकाश की किस सीमा में
बाजे असीम की बंसी
वहाँ निद्रा तिमिर भेदकर
जागे अरूण की हँसी
उसी ओर, उसी ओर
खोल दे, खोल दे, खोल दे रे।
जीवन तट का हरियाला खेत
खिले फूल की ज्योति अपार
मरणाकुल फेनिल उफान
पीछे छोड़ जाये
विहर की वेदना में आनन्द झलके
मिलन में विहर का लेख
जीवन मरण जीत चमके
प्रणय का ध्रुवतारा
चमक कर बुलाये रे
प्रकाश की ओर, प्रकाश की ओर
ज्योति के देश की ओर।
2. लुइत* तट का अग्निसुर
लुइत तट का अग्निसुर
तुम्हें लिख दिया अपने रक्त से
लुइत तट का अग्निसुर।
तुम्हें रच दिया
व्यथा वेदना से
कर दिया तुम्हें
अपने हृ्दय की
अग्निशिखा से
लुइत तट का अग्निसुर।
छा जाओगे तुम
लुइत के दोनों पार
चमकना तुम सागर के उस पार
भारत के घर-घर में
परिचय बनाना भावी पृथ्वी में
नये प्राण में
नये गान में
विकरित कर
ज्योति स्फुलिंग
जाना दूर अति दूर
लुइत तट का अग्निसुर।
* लुइत : (लोहित) ब्रह्मपुत्र नदी का लोक-प्रचलित नाम।
3. स्वाधीनता के लिये तड़पते प्राण
स्वाधिनता के लिये तड़पते प्राण
देश का दुःख देख कलपे हिया
भिक्षा की झोली ले निकला है
विमुख न करना हमें माँ।
त्याग दी हमने विषय वासना
अग्नि लुइत में प्राणों का कर संधान
गृहस्थ घर की लक्ष्मी बहू
अन्न की मुट्ठी करो दान।
देश का दुःख देख लुइत सिसक रही
रोक न पाये कोई अश्रुजल
अहिंसा युद्ध में रण की रणभेरी
बजे बार बार
जाये तत्काल
विमुख न करना हमें माँ।
4. कौन गढ़ना चाहता है सोने का देश
कौन गढ़ना चाहता है सोने का देश
माँ असमी को पहनाना चाहता
प्रकाशित सुन्दर वेश
कौन गढ़ना चाहता है सोने का देश
मेरे इस देश के खेतों में सोना
अपने आप उपजे
स्वर्न प्रभात की सुनहरी हँसी
मेरे आँगन में खेले
संध्या लुइत का वक्ष चमका
स्वर्णिम रंग भरे
सुनहले मूँगो के पट से
युवती सुन्दर सजे
रुपहली रेत पर स्वर्णिम धूल
झलमल रूप धरे
स्वर्ण केतकी की, स्वर्ण रेणु झरे
शिल्पी दल का स्वर्णिम स्वप्न
हरित वन विचरे।
स्वर्णिम देश की
महापुरुष की
शंकर माधव* की
स्वर्ण मूल्या संस्कृति
देती प्रकाश
इस पृथ्वी को
स्वर्णिम जीवन की
महा मनीषा
महा प्रतिभा जन जीवन की
स्वर्णीम सपनों की
इसी देश में स्वर्णिम भविष्य की
स्वर्ण ज्योति जले
इसी देश में शिल्पी मन के
महा स्वप्न की
इस पृथ्वी के स्वर्ण यथार्थ की, स्वर्णिम पहचान
स्वर्ण चित्र में ढले।
बोधन कर विश्व शिल्पी मन
इसी देश में जनजीवन में
स्वर्णिम मन की स्वर्णिम पंखुड़ी
स्वर्ण हँसी सी खिले।
* शंकर माधव: महापुरुष शंकरदेव
5. मनुष्य जन्म लेकर कौन
मनुष्य जीवन लेकर कौन
पशु का खेल खेलो?
देव किरीट पहन भाल पर
राक्षस रूप धरो
आसुरी नृत्य करो
स्वर्ग की छवि पृथ्वी पर चाहकर
नर्क की ओर डग भरो
अपनी आँख आप फोड़कर
गहरे गर्त गिरो।
ज्ञानी को तू मूर्ख बताये
हँसे आप ही आप ही रोये
खुद को मार रहा खुद ही
गली गली घूमो पगलाये।
reading first time in detail about sh jyoteprashad jee. excellent poetry. thanks for sharing'
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