इस कहानी ने लेखक श्री चरण सिंह पथिक को पुरस्कार ही नहीं दिलाया, उन्हें सफल एवं सजग कहानीकारों की जमात में भी ला खड़ा किया। आज से कोई ग्यारह साल पहले देहात के रचनात्मक अकेलेपन से ऊबकर लेखक जब सदा की भाँति अपने साहित्यकार एवं कवि मित्र प्रभात के घर जयपुर पहुँचे तो वहाँ साहित्यकारों का मजमा जमा हुआ था। प्रभात के आग्रह पर लेखक ने अपनी इस नई कहानी को वहाँ पढ़ सुनाया। सुनकर सब अवाक, लेखक चकित। जब सन्नाटा टूटा तो सबने कहानी की मुक्त कंठ से प्रशंसा की और कहा कि यह ‘‘हंस’’ या ‘‘पहल’’ में जानी चाहिए। लेखक उम्र में उन सबसे बड़ा था, पर साहित्यिक अनुभव में उन सबसे छोटा। इसे हीन ग्रंथि कह लें या और कोई कारण, लेखक फिर भी इसके प्रकाशन के प्रति उदासीन ही बना रहा। उस बीच 1998 में ‘दैनिक नव ज्योति’ ने कथा प्रतियोगिता आयोजित की, जिसमें इस कहानी को भेज दिया गया। निर्णायक ज्ञानरंजन जी ने ढेर सारी कहानियों में से इसे प्रथम पुरस्कार के लिए चयनित किया। बस, इसके बाद लेखक का सफर हंस, पहल, कथादेश, वसुंधरा, वर्तमान साहित्य आदि को पार करता हुआ अन्य पत्र-पत्रिकाओं तक जा पहुँचा। - ई हिन्दी साहित्य सभा
पुरस्कृत कहानी : बक्खड़ भाग-1
पुरस्कृत कहानी : बक्खड़ भाग-2
पुरस्कृत कहानी : बक्खड़ भाग-3
पुरस्कृत कहानी : बक्खड़ भाग-1
गैबी और बक्खड़
उत्तर-पूर्वी राजस्थान में आदिवासी मीणा, गूजर और अन्य तबको की महिलाओं द्वारा झगड़े के दौरान पुरुषों को दी जाने वाली बहुप्रचलित गालियाँ हैं- ‘गैबी और बक्खड़’ यों दोनों शब्द अर्थ के स्तर पर लगभग समान हैं या यों कहना चाहिए कि दोनों ही एक जूड़ी (जुआ) के दो बैल जैसे हैं, मगर नस्ल अलग-अलग है।
जहाँ तक ‘गैबी’ शब्द का सवाल है-यह अधिकांशतः धूर्त, मक्कार, लफंगा था फिर ऐसे व्यक्ति के लिए भी प्रयुक्त होता है जो विश्वसनीय नहीं रहा हो। इस गाली का लोग खास बुरा नहीं मानते। लेकिन आप किसी को ‘बक्खड़’ कहकर ताना मारेंगे या गाली देंगे तो स्थिति बिल्कुल उलट हो जाएगी। मिसाल के तौर पर इसे यहाँ दिए कुछ संवादों से बखूबी समझा जा सकता है।
जैसे अगर कोई बच्चा,किशोर या जवान कहीं ऊधम या शरारत करके घर आता है और उसकी शिकायत उसकी माँ से की जाए तो वह कभी-कभी गुस्से में अपने बेटे से कह देती है - ‘‘सारे दिन उधम करता रहता है। तू मरा नहीं गैबी? मर जाता तो क्लेश बुझता।’’ इसी प्रकार कोई व्यक्ति हमसे मजाक कर रहा हो, या उसकी वजह से हमारा कोई काम न हो सका हो, ऐसी हालत में हम यह कह भी दें कि - ‘‘यार तू तो बहुत गैबी निकला’’ तो उसे बुरा नहीं लगेगा।
दोनों ही संवाद सुनने और पढ़ने में खराब लगते हों, मगर माँ द्वारा अपने बेटे को दी गई ‘‘गैबी’’ गाली में भी उसका अपार वात्सल्य छिपा रहता है। गैबी कहते हुए उसे खास जोर नहीं आता, मगर वह अपने लाल को ‘‘बक्खड़’’ नहीं कहेगी। दोनों शब्दों की व्यंजना बिल्कुल भिन्न है। कभी-कभी बहुत गुस्से में या बहुत ज्यादा प्रताड़ित होने पर पत्नी भी गैबी शब्द का प्रयोग कर बैठती है। पति अपने लिए गैबी संबोधन सुनकर गुस्सा तो होता है, मगर उसे सहजता से टाल जाता है। यह सिर्फ मीणा-गूजर जाति में ही नहीं, बल्कि ग्रामीण इलाकों में रहने वाली सवर्ण व पिछड़ी जातियों और दलित-आदिवासी जातियों के बारे में भी इतना ही सच है।
पुरस्कृत कहानी : बक्खड़ भाग-2
‘‘हरामजादी कुतिया, तेरे बाप का घर है जो चली आई?’’ और फिर तड़ाक-तड़ाक लात-घूँसे मैं एक कोने में कबूतर सा दुबका हुआ माँ का पिटना लाचार हो बस देख सकता था। कितना खौफनाक और मुश्किल होता है अपनी माँ को बेरहमी से पिटना देखना....जी करता था, कुल्हाड़ी उठा लूँ और फिर खच्चाक् से अपने बाप के सिर में दे मारूँ। मगर मैं कुछ भी नहीं कर सकता था सिवाय रोने के।
माँ ने कभी प्रतिरोध नहीं किया हो ऐसी बात नहीं है। लेकिन कब तक....? वह भूखी प्यासी और घायल कई-कई दिनों तक अँधेरी कोठरी में पड़ी रहती और मैं माँ के सूखे, पिचके हुए स्तनों को लिबड़ता रहता। एक सुनियोजित तरीके से वे अपनी हर चाल चलते। कोई नहीं चाहता था कि माँ यहाँ रहे। उनकी बला से कहीं जाए। क्या कसूर था मेरी माँ का....?
मुझे जन्म देने के लिए माँ ने जीते जी नर्क भोगा था और उस नर्क की शुरुआत भी बड़े धूमधाम से हुई। पहले वाले बाप को सरकार में उच्च पद मिल गया था। बाबा का सीना चैड़ा हो गया था। वे चैबीसा के पटेल थे। पटेल का अपना रुतबा था। मान-सम्मान था। ऊँचा खानदान था। इस पर पूरे इलाके में उसके बेटे को उच्च पद मिलना। बस उसी दिन से बुरे दिन शुरू हो गए थे माँ के। घोर उपेक्षा, तीखे, जहर बुझे बोल। फिर मेरा पेट में आना, माँ का सवेरे जल्दी उठना, आटा पीसना, झाड़ू लगाना, गोबर डालना, कंडे थापना, पानी लाना, दोपहर में रोटी बनाना, बीच-बीच में सास-ससुर की झिड़की, फिर शाम हो जाना। माँ कोल्हू का बैल बनकर जीने पर मजबूर थी बाप ने तो माँ से बोलचाल तक बन्द कर दी थी। दादी का माँ के हाथ से रोटियाँ छीन लेना। मेरे लिए दूध पर पाबंदी लगा देना। माँ प्रतिरोध करती तो दादी दहाड़ती, ‘‘तेरा बाप कमा के रख गया है क्या? बाप खाणी, मरी नहीं तू.....नकटी राँड।’’
माँ भी तीखा जवाब दे देती तो, घर में कोहराम मच जाता। दादी रोने-बिसूरने लगती। अपने नाटक को चरम पर पहुँचाने के लिए दरवाजे से माथा पीटने लगती। तमाम तरह की भद्दी गालियाँ बकती, ‘‘आने दे तेरे खसम को, तेरी खाल नहीं उधड़वा दूँ तो मेरा नाम भौंरी नहीं।’’
और जब बापू शहर से आते तो दादी बापू के नसीब को कोसती और रो-रो कर स्वांग भरती, ‘‘संभाल इस कलूटी को। अरे, तेरे तो भाग ही फूट गए। काम करने के नाम पर मारने दौड़ती है हत्यारी। ऐसा धक्का दिया कि देख....।’’ और फिर वह अपना माथा बापू को बताती। बापू के खौफ से माँ बकरी की तरह मिमियाने लगती। मगर सब बेकार जाता। जो भी हाथ लगता, माँ रुई की तरह धुन दी जाती। माँ मुझे पेट में लिए गाय सी डकारती। होश ही नहीं रहता। लूगड़ी कहीं गिरती। पड़ोसी जैसे-तैसे बचाते। मगर कब तक? कई-कई दिनों तक माँ को भूखा रखा जाता। दिन भर काम करवाया जाता। माँ खुद भूखी रह सकती थी मगर मुझ अभागे को कैसे भूखा रख सकती थी। हाथ-मुँह धोने के बहाने खेतों की तरफ निकल जाती। चने की घेघरी चबाती। गेहूँ की बाल मसल-मसलकर पेट में डालकर मुझे तृप्त करती। पड़ोसियों से छुपकर रोटियाँ लाती और रात को चुपचाप खाकर पानी पी सो जाती। जब भी बादल होते माँ कराहने लगती, पूरी रात सो भी नहीं पाती। शरीर का कोई हिस्सा ऐसा नहीं था, जहाँ दानवीय चिन्ह नहीं हों। कंधे, बगल, पिण्डली व शरीर के तमाम जोड़ बुरी तरह दर्द करते। जैसे-जैसे दिन नजदीक आ रहे थे, माँ की मुश्किलें बढ़ रही थीं। साँवला रंग और तीखे नैन-नक्श अब मात्र बीते युग की कहानी बन कर रह गए थे। माँ सूखकर छुआरा जैसी हो चली थी। चलती तो चक्कर आने लगते। फिर भी माँ का जीवट कम नहीं हुआ। बदस्तूर घर का काम करती। लेकिन अन्दर ही अन्दर टूट सी गई थी माँ। जब लगने लगा कि अब नहीं जी पाऊँगी तो एक रात चुपके से नानी के यहाँ आकर शरण ली। बेहद डरावनी रात थी वह। मई की उमस, वातावरण में बेशरमी सी पसरी हुई थी। घोर अँधेरा, चारों तरफ सन्नाटा। कभी-कभी उमस से बौखला कर मोर कुहुकने लगते। रात के दूसरे पहर माँ पहुँची। माँ की हालत देखकर नानी सकते में आ गई। घर में जगार हो चुकी थी। नानाजी लाठी टेकते हुए बाहर आए। छोटे मामाजी को आवाज देकर पूछा, ‘‘कौन आयो है?’’
‘‘मैणा आई है।’’ मामाजी ने अवरुद्ध कंठ से बस इतना ही कहा। नानाजी सब कुछ समझ गए। माँ कटे पेड़ सी चारपाई पर सिकुड़ कर लेट गई थी। आँखों से लगातार दर्द बह रहा था। नानी हौले-हौले सिसकियाँ लेती माँ के सिर पर हाथ फेर रही थी। रात का वक्त, लालटेन की मन्द रोशनी। माँ ने अपनी पीठ, पिंड लियो आदि को बतौर सबूत नानी को दिखाया। नानाजी हल्की आह भरकर बैठक में जा चुके थे। नींद कोसों दूर थी।
सुबह का वातावरण बोझिल था। उजाले में माँ की हालत देखकर नानी ने बाबा, दादी और बापू की सात पुश्तों की खबर ले डाली।
‘‘राम करे तो कीड़े पड़ेगे निपूतों को....गैबी, बेशरम, मर्द होकर बैय्यर पै मर्दानगी दिखावे, नामर्द कहीं का....।’’ नानी जब शांत होती तो वह माँ की पिंडलियों पर पड़े नीले निशानों को सहलाने लगती। माँ एक अनगढ़ पीड़ा से कराह उठती।
लेकिन बाप के घर बेटी कब तक धिकेगी.....? अगर बाल-बच्चा यहीं हो गया तो.....? दिन बीतते-बीतते ऐसे सवाल भी नानी के जेहन में दस्तक देने लगे थे।‘‘ खानदान की नाक कट जाएगी अगर बाल-बच्चा हो गया संतों को।’’ नानी ने एक दिन यही प्रश्न नानाजी के सामने रखा।
‘‘..........तो फिर..........?’’ नानाजी ने हताश होकर बमुश्किल शब्दों को बाहर निकाला।
‘‘..........तो फिर क्या..........। तुम जाओजी। समधी से जैसे-तैसे हो संतों को रखने को कहो। अगर यहाँ कुछ हो गया तो जात बिरादरी में क्या मुँह दिखाएँगे।’’ जगरौटी इलाके की भूडैल धरती के बाषिन्दे, गूजर-मीणों की अपनी परम्पराओं में पली-बढ़ी मजबूर नानी आखिर कहती भी क्या?
और एक दिन नानाजी बाबा के पास गए। मैं जानता हूँ नानाजी ने हाथ जोड़े होंगे। अपनी पगड़ी बाबा के पैरों में डालकर बेटी को अपनाने की भीख माँगी होगी। जात-बिरादरी, लोक-लाज और ऊँचे खानदान का वास्ता दिया होगा। वरना बाबा सहज में हाँ करने वाले नहीं थे।
बाबा का व्यक्तित्व रोबीला था। नानाजी कहते हैं कि उनका खानदान सात पीढ़ियों का खानदानी और हमारा पाँच पीढ़ियों का। बाबा चैबीसा के पटेल हैं। जात-बिरादरी एवं अन्य जातियों की पंचायत में उनको आदर से बुलाया जाता था। ऊँचा कद, चैड़ा माथा। नुकीली मूँछें और सुतवां नाक, बड़ी-बड़ी आँखें, जिनमें अब भी जमींदार मीणों के सामंती अवशेष बचे हुए थे। जब पंचायत में बोलते तो सन्नाटा छा जाता। पूरे ढाई सौ बीघा के जोता जो ठहरे। चमार, कोली, जोगी आदि बाबा के यहाँ बारी-बारी से हाली लगते। गोपाल डोम का पाँच बीघा का आम वाला खेत बाबा ने जिस तरीके से हड़पा, वह सभी को मालूम है। सिर्फ पाँच हजार रुपये कर्ज देकर खेत की आँट लिखवा ली थी और फिर सूद पर सूद। बेचारा गोपाल डोम अब घर-घर ढोल बजाकर दाने माँगता फिरता है। नानाजी ने अपने पाँच पीढ़ियों वाले खानदान की दुहाई देकर माँ को जैसे-तैसे तैयार किया और सग्गड़ जोड़कर एक दिन माँ को पहुँचा दिया उसी नर्क में सड़ी-गली परम्पराओं का वास्ता देकर एक नर्क और भोगने के लिए। नानी को विष्वास था, माँ अब शायद ही बचे। अच्छा है, स्वर्ग मिलेगा, धणी के दरवाजे मरने पर। नानी मन ही मन आष्वस्त होती है। रूढ़ियों में जकड़ी नानी करती भी क्या?
मेरा जन्म और बापू का शहर में किसी पढ़ी-लिखी सुन्दर औरत को मेरी दूसरी माँ बनाकर लाना, सब पता नहीं एक ही दिन कैसे हो गया। संयोग भी हो सकता है। बापू ने किसी से कुछ भी नहीं कहा। बाबा और दादी तो चाहते भी यही थे। दादी बहू को देखकर बहुत खुश थी। बड़ा घर, बड़ी बातें। सभी जात-बिरादरी वाले फुस-फुस करने के अलावा कुछ नहीं कर सके। उस दिन बड़ा भोज रखा गया था। बाद में सुना कि कोर्ट में शादी की है। माँ ने सुना तो एकाएक कह उठी, ‘‘हे भगवान, अब तो समेट ले मुझे, और कितना भुगताएगा.....?’’
आस-पड़ोसी डर के मारे माँ से बात नहीं करते। अगर कभी किसी को दादी देख लेती तो फिर न माँ की खैर थी न उस औरत की, जो माँ से बात कर रही होती। माँ हमेशा अँधेरी कोठरी में पड़ी रहती। नानकी ताई माँ से बेहद लगाव रखती थी। वही प्रसव में साथ रही। नानकी ताई बरसों से इस घर में काम करती आ रही थी। लेकिन जब से माँ ने इस घर में कदम रखा है, दादी ने उसकी भी छुट्टी कर दी थी। लेकिन नानकी ताई दादी की नस-नस से परिचित थी। वह उससे जमकर टक्कर लेती। दादी तो चाहती थी कि माँ इस अँधेरी कोठरी में प्रसव के समय तड़प-तड़प कर अपनी जान दे दे। मगर नानकी ताई सतर्क थी। वह वक्त रहते हाजिर हो गई थी। दादी के लाख मना करने के बावजूद भी नानकी ताई ने र्दाइं का दायित्व पूरी सतर्कता और ईमानदारी से पूरा किया। मेरे पैदा होने की खुशी माँ केवल नानकी ताई के साथ ही बाँट सकी थी। वो तो नई बहू के आगमन पर बहू के रंग-रूप और पढ़ाई पर इतने मुग्ध थे कि मैं कब पैदा हुआ कोई मतलब ही नहीं था।
मैं कैसे बड़ा हो रहा था..........। और तमाम विपदाओं के बीच माँ कैसे मुझे पाल रही थी, ये माँ का जीवट था। तीन साल का हो चुका हूँ। बाबा-दादी मेरी तरफ आँख उठाकर भी नहीं देखते। मैं चाहता हूँ कि दादी मुझे गोद में लेकर चूमें। बाबा मुझे खेतों पर घुमाने ले जाएँ। मैं सब कुछ चाहता हूँ। चाँद, तारे, खिलौने-कार, घोड़ा, गुड़िया। मैं रूठ जाऊँ और बाबा मुझे मनाएँ। दादी मुझे छाती से लगाकर लोरी सुनाए। लेकिन मैं रो रहा हूँ। ना जाने कब मेरी नाक बहकर मुँह में आ गई। माँ खेत पर सरसों की लावणी करने गई है। मेरे पास पहनने को चड्डी तक नहीं है। मैं धूल में लोट-पोट एक रोटी के टुकड़े के लिए धरती-आसमान एक कर रहा हूँ, गला बैठ गया है रोते-रोते। अब और रोया नहीं जाता। दादी उड़ती सी नजर मुझ पर डालकर माँ को भद्दी गाली देती हुई उठकर सूँघना सूँघने लगती है। बाबा बैठक में हुक्का गुड़गुड़ा रहे हैं। घेरबंद बाखर। चारों तरफ पर कोटा। एक लोहे का जालीदार फाटक। मैं रेंगता-रेंगता फाटक के पास आकर खड़ा हो गया हूँ, शायद आसमान से उतरेगी मेरी माँ। मेरे सामने, इस दगड़े में। इसी आस में हर शाम खड़ा रहता हूँ फाटक के पास भूखा-प्यासा। छः साल गुजर जाते हैं। थोड़ा बहुत समझने लगा हूँ, गाँव के हिसाब से। समझने लगा हूँ कि मेरे बाप के पास दो बैय्यर हैं। एक शहर में रहती है उनके साथ बन-ठन कर। गाँव तो बस तफरीह के लिए आती है। एक माँ है जो कोल्हू के बैल जैसी घूमती रहती है। घर से खेतों पर और खेतों से घर। गोल-गोल चकरघिन्नी सी। आज दादी और बाबा शहर जाने की तैयारी कर रहे हैं। दादी ने कीमती कशीदा कढ़ी हुई लुगड़ी और छींट का नया घाघरा पहना हुआ है। गले में सोने का गुलीबंद। हाथों में चाँदी के हथफूल। माथे पर चाँदी का चमकता बोरसा। चमड़े की नई जूती। बाबा मूँछों पर खिजाब लगा रहे हैं। लाल चूंदड़ी का साफा। जवाहर जाकिट। इकलंगी धोती। खादी का सफेद झक्क कुर्ता, पैरों में चमरौधा, हाथ में बेंत। पटेल जो ठहरे। ऐसे ही थोड़े जाएँगे शहर। हवेली के ताला ठोक दिया। माँ को हिदायत दी गई कि भैंस-बैलों का
ध्यान रखे। गोबर रोज डाले, दूध-दही को छूए नहीं। मैं माँ की ओर टुकर-टुकर देखता। पूछता तो माँ की आँखें गंगा-जमुना हो जातीं। नई माँ को बेटा हुआ है। दस दिन में लौटेंगे। माँ कराह उठती है-‘‘हे भगवान।’’
ग्यारहवें दिन फाटक के बाहर एक जीप आकर रुकती है। मैं कौतूहलवश दौड़कर खोलता हूँ। जीप से पहले दादी उतरती है। गोद में खरगोश सा लिए हुए। मुझे देखते ही दुत्कार देती है, ‘‘दूर-दूर, दूर हट, गैबी का।’’ मैं सहम कर एक ओर हो जाता हूँ। दादी के मुँह से एक निहायत ही गंदी गाली निकलती है- ‘‘मैया की.....आ गया जीप देखने।’’ मैं रुआँसा हो जाता हूँ। एक नजर नई माँ पर डालता हूँ। शायद कुछ लाई हो शहर से मेरे लिए। एक नजर बापू और बाबा पर मगर झिड़कियों के अलावा कुछ नहीं मिला।
हवेली के ढांई तरफ दो गह की पाटौर थी। उसी में डाल रखा था हमको। एक दिन मैं नन्हे को देखने का लोभ संवरण नहीं कर सका। डरते-डरते हवेली के ऊपर पहुँचा। जाड़े के दिन थे। नई माँ, दादी, बापू हवेली के ऊपर बैठे हुए नन्हे को लेकर भविष्य की योजना बना रहे थे शायद।
मुझे देखते ही दादी फट पड़ी, ‘‘चल नीचे उतर, नकटी राँड के।’’
मैं जड़ सीढ़ियों के पास खड़ा रह गया। दादी को गुस्सा आ गया। उसने अपना भारी भरकम शरीर समेटा और भनभनाती मेरी ओर लपकी। एक जोरदार धक्का लगाया। मैं सँभल पाता इससे पहले ही कदम डगमगाए और लुढ़कता हुआ नीचे चैक में।.....एक भयानक चीख वातावरण में उछली। माँ ने फौरन चीख को लपका। हकबकाती चैक में आई। मैं बेहोश था। दाँए हाथ की हड्डी चटख गई थी। माँ रोती-रोती मुझे उठाकर बाहर ले गई। पाटौर में चारपाई पर मुझे लिटाया गया। शोर सुनकर बाबा आए। बोले- ‘‘जो हुआ सो हुआ। बाहर मत जाना, किसी से कहने-सुनने की जरूरत नहीं है।’’ मैं अब भी बेहोश था।
माँ ने उस दिन पता नहीं कहाँ से साहस जुटाया होगा। माँ का धैर्य टूट चुका था। माँ अब दबने वाली नहीं थी। उसने दादी की सात पीढ़ियों की जब खबर लेनी शुरू की तो दादी आग-बबूला हो गई। बापू की मातृभक्ति भी प्रचंड हो उठी।
‘‘इसकी इतनी मजाल। निकल अभी मादर.....की दो कौड़ी की औरत।’’ और न जाने क्या क्या.....। मुझे धीरे-धीरे होश आ रहा है। मैं देख रहा हूँ कि माँ पर लात-घूँसों की अनवरत मार पड़ रही है। कपड़े अस्त-व्यस्त हैं। मैं चारपाई के एक कोने में डर से दुबका सुबक रहा हूँ। कोई आए और बचा ले मेरी माँ को। जी करता है-मैं कुल्हाड़ी उठाऊँ और खच्चाक.....। और फिर हम दोनों माँ-बेटे होश नहीं कब तक बेहोश उस पाटौर में पड़े रहे। शाम हो चुकी थी शायद।
माँ ने अब काम करना बिल्कुल बंद कर दिया था। अब न तो माँ खेतों पर जाती और न ही घास लाती। ना ही गोबर डालती। एक फैसला कर चुकी थी माँ।
‘‘मैं क्यों खटूँ? मैं क्यों चराऊँ भैंसों को? क्यों गोबर डालूँ? बाँदी थोड़ी आई हूँ। सात फेरे खाए हैं, काम करे मेरा मुट्ठा। जिसको जो करना है कर ले मेरा, मारेंगे तो सही। पर अन्याय तो अब एक दिन भी सहन नहीं करूँगी।’’
इस बात पर घर में बहुत कोहराम मचा था। लेकिन माँ दृढ़ थी। अब वह खुलकर बोलने लगी थी। लेकिन माँ अकेली कब तक लड़ती.....। कई बार आत्महत्या करने की भी सोची, मगर माँ ने घर छोड़ना ही उचित समझा। अपने और मेरे भविष्य की खातिर माँ ने दूसरी बार घर छोड़ा था।
माँ आते ही नानाजी पर बरस पड़ी, सारी बिरादरी मर गई थी क्या जो नर्क में ले जाकर पटका मुझे? और नहीं मिला कोई? किसी गरीब को देता तो एहसान मानता। हाथ-पैर तो ना तुड़वाती। भाड़ में गया खानदान। ऐसे ही होते हैं क्या पटेल? माँ ने जमकर सभी को कोसा और फूट-फूट कर रो पड़ी। सभी की आँखें नम थीं। बैठक भरी हुई थी। मामाजी तो गुस्से में बंदूक निकाल लाए।
‘‘इनकी ऐसी की तैसी, गोली मार दूँगा एक-एक को।’’बड़ी मुश्किल से सबने उन्हें समझाया। शान्त किया। हीरू नानाजी ने पंचायत बिठाने की सलाह दी। रामेसर मामाजी ने कोर्ट में दावा करने का सुझाव दिया। नानाजी सबकी सुन रहे थे। पहले ही सूख-सूख कर पिंजर हो चले थे। उनके दिमाग में एक ही बात कील की तरह
धँस गई थी। ‘‘मेरी संतों को छोड़’’ दिया है।
पंचायत में लोग हँसी उड़ाएँगे। मजे ले-लेकर पूछेंगे। कोर्ट कचहरी में सालों लगेंगे। तब क्या किया जाए। उन्होंने अपनी कोटर सी आँखों को झपकाया और बोले- ‘‘ना पंचायत बिठाऊँगा और ना ही कोर्ट में जाऊँगा। संतों यहीं रहेगी, मेरे पास। जब तक कोई इंतजाम नहीं हो जाता।’’ नानाजी का फैसला सुनकर सब हतप्रभ थे।
अब मैं आठ साल का हो गया हूँ। साढ़े छः बरस से आठ साल तक ननिहाल रहा। इन डेढ़ वर्षों में नानाजी की जो हालत हुई वह अविश्वसनीय थी। माँ को लेकर उन्हें हजारों आँखों के हजारों सवालों का उत्तर देना पड़ता था। मामाजी तथा नानाजी दोनों को शराब की लत ने तोड़कर रख दिया। वे अब बैठक के बाहर कम ही निकलते। पंचायतों में जाना छूट चुका था। घर की हालत दयनीय हो चली थी। सब चैपट हो चला था।
और इसी का प्रतिफल हुआ-माँ का बीस हजार में सौदा होकर नाते जाना।
उसी दिन मुझे नए कपड़े पहनाए गए थे। मैं बहुत खुश था। मुझे अपनी आठ वर्ष की जिन्दगी में कभी इतनी खुशी नहीं हुई थी। उस दिन घर में बड़ी चहल-पहल थी। यों वह कहने को ही घर था। वर्ना ननिहाल था। देशी घी में पुआ-पुड़ी भूख को उभार दे रहे थे। नानी के चेहरे पर संतोष झलक रहा था। माँ को भी नए-नए कपड़े लाए गए थे। एक सितारों जड़ी, कशीदा कढ़ी हुई लुगड़ी, जिसमें मोर, तोता, फूल पत्तियाँ जीवंत थे। नई अँगिया, नया सलूका, नया छींट का घेरदार घाघरा। कई गहने-हथफूल, गुलीबंद, बोरला, कणकती, कडूल्या, सींक-सारा का सारा जेवर चाँदी-सोने का था। नानाजी बेटी को ठिकाने से लगाने के बाद मेहमानों के साथ बैठक में कई आदमियों के साथ मजे से हुक्का गुड़गुड़ा रहे थे। बाहर गैत (बाड़े) में नीले बैलों की एक मलूक जोड़ी बँधी हुई थी। उन्हीं के पास सग्गड़ (ताँगा) रखा हुआ था।
कुल बीस हजार में सौदा तय हुआ था माँ का। दस हजार झगड़े के और दस हजार नानाजी ने अपनी अंटी में खोंस लिए थे। माँ के कपड़े जेवरों को देखने के लिए आँगन में चारपाई पर एक नुमाइश सी लगी हुई थी। सभी औरतें अपने-अपनी तरीके से चीजें परख रही थीं।
मेरे पाँव हवा में थे। बहुत दिनों बाद सग्गड़ में मौजी खाने का अवसर आने वाला है। एक नया बाप मिलने वाला है। मैं बैठक में बैठे मेहमानों में अपने नए बाप को उड़ता सा जाता और देख आता। फिर जाता और पहले वाले से उसकी तुलना करता। तुलना करते ही मुझे पहले वाले का हर वक्त नफरत और गुस्से में डूबा हुआ चेहरा याद आने लगता और मैं सर से पाँव तक काँप उठता।
माँ को दूसरी बार लाड़ी जैसी सजाया गया। कितनी अथाह पीड़ा हुई होगी माँ को.....। कितनी बार किस्मत को कोसा होगा माँ ने.....? विदा के वक्त कितनी रोई थी माँ.....।
नानी ने बार-बार माँ से लिपट-लिपट कर रोते हुए ना जाने कितनी ही ऊँच-नीच की बातें माँ को समझाई.....। नानाजी बार-बार मुझे दुलार रहे थे। मामाजी के होठ दुरूख से फड़क रहे थे। सारा मोहल्ला ही हमें विदा करने आया हुआ था। कितना अपनापन था सभी में। कितना प्यार था एक दूसरे में.....। नानी ने बहुत सी चीजें बनाकर एक छोटे से संदूक में रख दी थीं। बैल सग्गड़ में जोत दिए गए थे। एक टिचकारी के साथ सग्गड़ चल पड़ा था। सब बैठ चुके थे। धीरे-धीरे ननिहाल पीछे छूटता जा रहा था। सग्गड़ में मेरे पास बैठे माँ लगातार रोए जा रही थी.....रोए जा रही थी.....।
नया घर, नया गाँव, नया माहौल। नया बाप, नया बाबा, दादी नहीं थी। सब कुछ नया ही नया, हम भी नए। नए घर में जोरदार स्वागत हुआ। लगभग सारा गाँव ही महीनों तक मुझे तथा माँ को देखने उमड़ा रहा। गाँव की थाई (चैपाल), कउ (अलाव), गलियों, मोहल्लों यहाँ तक कि हर घर में चूल्हे पर कई महीने तक एक ही कथा रही, ‘‘हजारी मीणा नई भौंटिया लायो है, संग में एक आठ-नौ साल को छोरा भी। जिसका एक हाथ टेढ़ा है।’’ मैं नए घर का राजकुमार था, माँ महारानी। मैं अब मूला मीणा वल्द हजारी मीणा हो चुका था। माँ ने बाकायदा घर सँभाल लिया था। जो माँगू फौरन हाजिर। मैं रूठ जाता तो गजब हो जाता, गाँव भर में दद्दू के साथ घूमता-फिरता। स्कूल के नाम से ही बिदकता। पढ़ने का खास चाव नहीं था। पिछली तमाम यातना और पीड़ा से लबरेज स्मृतियों को पोंछ कर माँ ने अपने आप से एक गुप्त समझौता कर लिया था। भूल गई थी सब कुछ अपना अतीत दफन कर चुकी थी, माँ एक और नए भविष्य की बुनियाद रख रही थी। नई उमंग के साथ जिन्दगी को भरपूर जीने की चाह फिर से जाग उठी थी। वक्त का घोड़ा दिन, महीने, सालों को रौंदता हुआ दौड़ रहा था।
सत्रह-अठारह वर्ष का रहा हूँगा। दद्दू के साथ खेतों पर काम करता। एक हाली भी लगा रखा था, गनेसी चमार। काफी जमीन है। माँ घर को सँभालती। मुझसे छोटे रामसहाय और हरसहाय को दद्दू ने पढ़ने बिठा दिया है। दोनों शहर में रहकर पढ़ते हैं। मेरा काम भैंसों को चराना था। गाँव का विशाल चारागाह, जिसमें सभी की भैंसें चरतीं, चराने वाले सभी किशोर। चैमासे में रिमझिम बूँदों में भीगते हुए फाँद (लंबी कूद) कूदते, दकना (ऊँची कूद) कूदते, जोर (कुश्ती) करते।
मेरे साथ ही सुखराम पटेल का बदरी, भोंदू का खिलारी, जगन का जौहरी और मलुआ का रमजू। सभी खेलते-कूदते। भैंसें चराया करते।
मैं और बदरी एक दिन जोर कर रहे थे। मैंने धोबीपाट लगाया तो बदरी बच गया। लेकिन जब इकलंगा मारा तो सीधा चित लाया। सुखराम पटेल न जाने कब आकर खड़ा हो गया था। पूरे गाँव का पटेल था। उसके बेटे को मैं पटक दूँ। राम.....राम.....।
वह अपने बेटे बदरी पर बरस पड़ा- ‘‘हरामजादे, मूला से हार गया। एक बक्खड़ से.....ना जाने किसका मूत है ये और तू इसी से मात खा गया। डूब मर मादर .....। आ.....क्क.....थू.....।’’
मुझे जैसे हजारों विषधरों ने डस लिया हो, मैं संज्ञा शून्य हो चुका था। मुझे पहली बार लगा कि मैं आदमी होने के अलावा भी और कुछ हूँ। बक्खड़.....बक्खड़.....मैं बक्खड़ हूँ। मैं मूला मीणा वल्द हजारी मीणा.....। मेरे बाप का नाम हजारी है। गाँव का माना हुआ आदमी है। पाँच आदमियों में उठता-बैठता है।
मैं चीखा- ‘‘कौन, किसका मूत है सुखराम पटेल। बक्खड़ होगा तू.....तेरा बाप। ठहर तो सही.....।’’ और एक जोरदार लाठी मैंने सुखराम पटेल की पीठ में दे मारी। कितना कोहराम मचा था उस दिन। जिसने भी सुना-सन्न रह गया। पल भर में क्या से क्या हो गया? मैं होश खो बैठा था। दद्दू ने सुना तो दौड़े चले आए। माँ भागी-भागी आई और कसूरवार सी मुझे झिंझोड़ने लगी। कुछ भी हो सकता था। मेरी आँखों में तैरते सवालों से माँ सहम गई थी। सुखराम पटेल के कुटुंबी लाठियाँ लेकर आ चुके थे। दद्दू के साथ बाबा, चाचा, ताऊ तथा अन्य सभी के हाथों में लाठियाँ कसी हुई थीं। गाँव के तकरीबन सभी स्त्री-पुरुष बच्चे चारागाह की ओर लपके जा रहे थे।
सुखराम पटेल की पिटाई.....कोई खेल है क्या? नहीं, नहीं झूठ होगा। किसी को विश्वास नहीं.....। सभी घटनास्थल की ओर आ रहे थे। सुखराम पटेल अब भी बेहोश था। उसके सभी कुटुम्बी उसे होश में लाने में तल्लीन। एक बार होश में आ जाए बस.....फिर देखेंगे मुझे.....।
लेकिन फिर देखना नहीं हुआ। बीच-बचाव हुआ। राजीनामा हुआ। सभी को ताजुब्ब था। जो होना था क्यों नहीं हुआ? किसी का सिर क्यों नहीं फूटा? गाँव के लोग अपने-अपने तरीके से बात को घुमाते। बहुत से भाइयों को तो लड़ाई का मजा ही नहीं आया था। उनके अनुसार जमकर लाठियाँ चलतीं। फिर थाना कचहरी हो तब लड़ाई का मजा। वर्ना सब बेकार। पटेल हम से
बदला लेगा, ऐसा सभी सोच रहे थे।
सुखराम पटेल ने फिर जिस प्रकार बदला लिया, उससे जिन्दगी की राहें ही बदल गई। संभवतः उस दिन ज्यादा होता तो किसी के हाथ-पैर में चोट लगती, कुछ घाव आते जो वक्त के साथ भर जाते। लेकिन ये एक ऐसा घाव था जो मरते दम तक नहीं भरेगा। मेरी शादी दद्दू के लिए सिरदर्द से कम नहीं थी। इज्जत का सवाल था। दद्दू के पास बहुत जमीन थी। काफी पैसा था। गाँव में अच्छा रुतबा था। पाँच आदमियों में शुमार था दद्दू का नाम। लेकिन बक्खड़ को कौन ब्याहेगा अपनी बेटी? माँ इस चिंता में घुलने लगी थी। मेरा मूला क्या कुँआरा रह जाएगा? जो भी नाते-रिश्तेदार आता, उससे बस यही जिक्र करती। माँ की चिंता में अतीत टीसने लगता। दद्दू कहते-सब हो जाएगा मूला का ब्याह। तू क्यों चिंता करती है। माँ सूनी-सूनी आँखों से दद्दू की ओर देखती। दद्दू समझते हैं माँ का दर्द।
मगर सुखराम पटेल गोटियाँ जमने ही नहीं देता। कोई आता उसे पहले ही उल्टी-सीधी सुनाकर उखाड़ देता- ‘‘क्या सारी बिरादरी की औरतें बाँझ हो गई या हमारी बिरादरी में उससे मलूक कोई लड़का ही नहीं.....? जो बक्खड़ को छोरी देने चले आए।’’ और फिर वह लोक-लाज, खानदान, हैसियत, बिरादरी न जाने कैसे और क्या-क्या उदाहरण देकर सामने वाले को उल्टे पाँव लौटा देता।
हमें सब खबर रहती। लेकिन माँ और दद्दू हार मानने वाले नहीं थे। माँ कहती, ‘‘मूला का घर बसाकर ही दम लूँगी। चाहे धरती बिके तो बिक जाए।’’
मेरा घर बसाना माँ के लिए अब एक मिशन से कम नहीं था। माँ की कोशिशें अनवरत थीं। दद्दू भी भरपूर सहयोग कर रहे थे। खेती का काम अब पूरी तरह मेरे जिम्मे आ पड़ा था। बीस की उम्र को पार कर गया हूँ। दोनों छोटे रामसहाय और हरसहाय पढ़ाई में अच्छे चल रहे थे। सभी उम्मीद लगाए हैं कि आरक्षण की वजह से अच्छी नौकरी पकड़ लेंगे। अच्छे घरों में दोनों की शादी भी हो जाएगी।
.....कि एक दिन सुबह माँ को मैंने बहुत व्यस्त और खुश देखा। मैंने पूछा तो माँ केवल मुस्करा कर रह गई। शाम तक घर में उत्सव की तैयारी होती रही। घर पर अजीब माहौल था। सब इधर-उधर दौड़ रहे थे। चाचियाँ तथा चचेरी बहिनें, बुआ आदि अनोखी उमंग में उड़ी जा रही थी। शाम को जब मैं बाड़े में अकेला लेटा हुआ था तो चचेरी बहन गजरी दौड़ी-दौड़ी मेरे पास आई। मेरे कान में धीरे से कहा, ‘‘भाया, भाभी आई है।’’ मेरे पेट में गोला सा उठा। मैं बड़बड़ाया-‘‘भाभी, कौन सी भाभी...?’’
गजरी ने इटलाते हुए बताया- ‘‘थारी लाड़ी आई है।’’
मैं एक अनगढ़ दर्द से बिलबिला उठा, ‘‘कौन लाड़ी? किसकी लाड़ी.....? ना सगाई, ना ब्याह, ना बारात, ना ढोल-तमाशे, कोई उत्सव नहीं। कोई खुशी नहीं। सब कुछ गोपनीय। क्यों....? आखिर क्यों.....? मैं क्या अछूत हूँ? मैं क्या समाज से बाहर हूँ? क्या किया है मैंने? कोई आकर बताए तो। सब कुछ समाज ने किया। समाज के बड़े-बड़े खानदान के ठेकेदारों ने किया है। मैं बक्खड़ हूँ तो इसमें मेरा क्या दोष है?’’ मेरी आँखों से लगातार आँसू टपक रहे हैं। गजरी मुझे फिर बुलाने आती है।
‘‘भाया, ओ भाया! माँ बुला री है।’’
मैं अनमना सा जाता हूँ। माँ, चाचियाँ, बुआ तथा अन्य औरतें मंगल गीत गा रही हैं। सभी नेगचार होते हैं। कहाँ से आई है? क्या नाम है? कोई चाव नहीं रहा। बड़ी हसरत थी कि मेरा भी किसी दिन धूमधाम से ब्याह होगा। बारात जाएगी। उस दिन सबने जमकर पी। माँ ने और दद्दू ने जैसे कोई जंग जीत ली हो। सुबह तो सारे गाँव में ये खबर आग की तरह फैल गई थी। सभी औरतें दुल्हन का मुँह देखने आ रही थीं। सुखराम पटेल तिलमिला गया। बहुत दूर की कौड़ी खोज कर लाए थे लोहड़े मामा। मालवा की मिट्टी से। मालवा की काली, कछारी मिट्टी की अफीमी गंध थी सुगरो। कैसे-कैसे मामा ने टोह ली.....? कैसे सौदा तय किया.....। सब एक तिलिस्म से कम नहीं है। कितना लिच्चड़ और कमीना होगा सुगरो का बाप। दूसरी बार बिकी थी सुगरो अपने बाप की दलाली में।
माँ ने सुगरो को सिर-आँखों पर बिठाया। माँ उसका हर संभव ख्याल रखती। मेरी भी पटरी बैठ गई थी। सुगरो भी धीरे- धीरे सामान्य हो चली थी। उसकी पीड़ को माँ बखूबी समझती थी। दिन पंख लगाकर उड़े जा रहे थे। दोनों छोटों की भी अच्छी नौकरी लग गई थी। उनकी शादियाँ भी धूमधाम से की थीं हमने। एक पोते की लालसा में माँ बूढ़ा रही थी कि एक दिन अप्रत्याशित रूप से सुगरो कही नहीं थी। घर में कुहराम मच गया। दुनिया छान मारी। मगर सुगरो नहीं मिली। ज्यों-ज्यों दिन गुजर रहे थे, माँ छीजती जा रही थी। मैं रेशा-रेशा होकर बिखर रहा था। दद्दू तथा लोहड़े मामा ने मालवा तक खोजखबर ली। सब प्रयास बेकार जा रहे थे।
सुखराम पटेल सीना तान अकड़-अकड़ कर चलता। मुझे देखकर अजीब तरीके से खांसता और पिच्च से थूक देता। मैं राख हो चला था। बक्खड़ होने का अभिशाप भोग रहा था। बेटे की बहू भागने की पीड़ा दद्दू तथा माँ को कमजोर किए दे रही थी।
लोहड़े मामा ने फिर दूर की खोज की.....। सुनकर सब दंग रह गए थे। सुगरो को सुखराम पटेल तथा उसके आदमियों ने ऐसी जगह पहुँचा दिया था जहाँ से कोई लौटकर नहीं आता.....। एक बार फिर कोहराम मचा। तनातनी हुई, मगर अब हो भी क्या सकता था? माँ ने उसी दिन चारपाई पकड़ ली थी।
.....ना जाने क्यों अब इस सत्तर साल की उमर में सब कुछ याद आ रहा है। मेरे जन्म से पहले की माँ द्वारा बताई सब बातें और बाद का बचपन-जवानी सब फोड़े सा रह-रहकर टीसने लगा। सुगरो की अफीमी गंध रातों में अब भी मेरे आसपास प्रेतनी सी डोलती थी। वो साठ-सत्तर वर्ष पहले का गाँव याद आता है। कितना प्रेम सहयोग था। माँ और दद्दू कभी के चले गए। बहुत याद आती है माँ। चारपाई पर अब ढंग से लेटा भी नहीं जाता, बस पड़ा रहता हूँ। एक गिलास पानी के लिए किसी को दस बार पुकारना पड़ता है। वो गाँव के चैड़े-दगड़े अब पगडंडियों में बदल गए हैं। जमीन के एक-एक कूड़ के लिए महाभारत होने लगे हैं। घर-घर टीवी लग चुके हैं। आए दिन लूट-हत्या, अपहरण की घटनाएँ। गाँव गंधाने लगा है अब।
माँ की एक-एक बात याद आती है। दद्दू, चाचा, मामा सब न जाने क्यों बार-बार याद आते हैं। भाई तथा उनके सभी बच्चे गाँव छोड़ चुके है। शहर में कोठियाँ बना ली हैं। मैं इस टूटे छप्पर में एक गिलास पानी के लिए आवाज लगा रहा हूँ हाथ-पाँव लाचार हैं। सब दुआ करते हैं कि इस दुनिया से मुक्त हो जाऊँ। मैं भी यही दुआ करता हूँ सुबह-शाम। अब तो लोग मेरा नाम भी भूल चुके हैं। शायद। मुझे भी याद नहीं कि मेरा नाम क्या है.....? लोग मुझे बक्खड़ कहते हैं।
बक्खड़.....बक्खड़.....सुनते.....सुनते सत्तर साल हो गए हैं। नसें चटकने लगी हैं। मुट्ठियाँ कस जाती हैं। मैं पागल कुत्ते जैसा भौंक उठता हूँ.....मैया.....रीऽऽऽ....
आभार इसे प्रस्तुत करने का. इत्मिनान से पढेंगे.
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