होली की बात हो और ब्रज का नाम ना आए, ऐसा तो हो ही नही सकता। होली शुरु होते ही सबसे पहले तो ब्रज रंगों मे डूब जाता है। सबसे ज्यादा मशहूर है बरसाना की लट्ठमार होली। बरसाना, भगवान श्रीकृष्ण की प्रिय राधा का जन्मस्थान। उत्तरप्रदेश में मथुरा के पास बरसाना मे होली की धूम, होली के कुछ दिनो पहले ही शुरु हो जाती है और हो भी क्यों ना, यहाँ राधा रानी जो पली बढी थी। दो सप्ताह तक चलने वाली इस होली का माहौल बहुत मस्ती भरा होता है। एक बात और यहाँ पर रंग और गुलाल जो प्रयोग किया जाता है वो प्राकृतिक होतें है। आजकल कुछ लोभी व्यापारी के चलते इसमें मिलावट भई देखने को मिलती है। इस होली को देखने के लिये देश विदेश से हजारो सैलानी बरसाना पहुँचते है।
नैनीताल की संस्कृति: बरसाने की होली के बाद अपनी सांस्कृतिक विशेषता के लिए कुमाऊंनी होली को याद किया जाता है। नैनीताल में परम्परागत कुमाँऊनी संस्कृति बनी हुई है। क्योंकि नन्दा देवी मन्दिर की उपस्थिति से इसका धार्मिक महत्व है। यहाँ पर होली के गीत होली त्यौहार के अवसर पर गाये जाते हैं। होली के गीतों को मुख्य रुप से तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है- खड़ी होली, बैठकी होली तथा महिला होली। फूलों के रंगों और संगीत की तानों का ये अनोखा संगम देखने लायक होता है। शाम ढलते ही कुमाऊं के घर घर में बैठक होली की सुरीली महफिलें जमने लगती है। बैठक होली घर की बैठक में राग रागनियों के इर्द गिर्द हारमोनियम तबले पर गाई जाती है।
".....रंग डारी दियो हो अलबेलिन में.........गए रामाचंद्रन रंग लेने को गए..........गए लछमन रंग लेने को गए............रंग डारी दियो हो सीतादेहिमें..........रंग डारी दियो हो बहुरानिन में...."
यहां की बैठ होली में नजीर जैसे मशहूर उर्दू शायरों का कलाम भी प्रमुखता से देखने को मिलता है।
"....जब फागुन रंग झमकते हों.........तब देख बहारें होली की..........घुंघरू के तार खनकते हों.........तब देख बहारें होली की......"
बैठकी होली में जब रंग छाने लगता है तो बारी बारी से हर कोई छोड़ी गई तान उठाता है और अगर साथ में भांग का रस भी छाया तो ये सिलसिला कभी कभी आधी रात तक तो कभी सुबह की पहली किरण फूटने तक चलता रहता है। होली की ये रिवायत महज़ महफिल नहीं है बल्कि एक संस्कार भी है। बैठ होली की पुरूष महफिलों में जहां ठुमरी और खमाज गाये जाते हैं वहीं अलग से महिलाओं की महफिलें भी जमती हैं। इनमें उनका नृत्य संगीत तो होता ही है, वे स्वांग भी रचती हैं और हास्य की फुहारों, हंसी के ठहाकों और सुर लहरियों के साथ संस्कृति की इस विशिष्टता में नए रोचक और दिलकश रंग भरे जाते हैं। इनके ज्यादातर गीत देवर भाभी के हंसी मज़ाक से जुड़े रहते हैं जैसे... फागुन में बुढवा देवर लागे.......
बनारस में तो रंग और अबीर की दर्जनों दुकानों को देखकर लोग यह गीत भी गाते हैं
भाई का पे डालूँ अबीर!:
"संउसे सहरिया रंग से भरी,
केकरा माथे ढ़ारूँ अबीर,
हो केकरा माथे ढ़ारूँ अबीर?"
कई प्रदेशों में होली को फगुआ भी कहा जाता है. फगुआ मतलब फागुन, होली। इस वेला में आम के पेड़ों में मंजर निकल आतें है। खेतों में गेहूँ की बालियाँ हवाओं के साथ अठखेलियाँ करने लगती है। सरसों के फूलों से लदे खेतों की छंटा ही कुछ निराली हो उठती है, आलू खेतों से निकल कर बाजारों में जाने लगते हैं। जिस तरह हम दिवाली के समय अपने घरों की साफ-सफाई करते हैं, यह वक्त किसानों के घरों में खुशियाली के साथ- साथ साफ- सफाई का समय भी होता है।
इस अवसर पर गाये जाने वाले लोकगीतों में देवी-देवताओं का जितना महत्व तो होता ही है, प्रकृति का भी काफी महत्वपूर्ण स्थान रहता है।
एक लोकगीत को देखें:
राजा दशरथ के द्वार देव सब जुट आए॥ राजा दशरथ के द्वार देव सब जुट आए॥ इन्द्रलोक से इन्द्र जी आए, घटा उठे घनघोर, बूँद बरसत आए... राजा दशरथ के द्वार देव सब जुट आए.. राजा दशरथ के द्वार देव सब जुट आए.. ब्रह्मलोक से ब्रह्मा आए,पोथियां लिए हाथ, वेद बांचत आए... राजा दशरथ के द्वार देव सब जुट आए.. राजा दशरथ के द्वार देव सब जुट आए.. शिवलोक से शिवजी आए , गौरा लिए साथ, भांग घोटत आए.. राजा दशरथ के द्वार देव सब जुट आए.. राजा दशरथ के द्वार देव सब जुट आए.. वृन्दावन से कान्हा आए राधा लिए साथ। राजा दशरथ के द्वार देव सब जुट आए.. राजा दशरथ के द्वार देव सब जुट आए..
असम में इस समय ढोल की थाप और बांस की बांसुरी की आवाज से सारा का सारा असम गुंजायमान हो जाता है। जगह-जगह ढोल और बांसुरी की थाप व तान पर लोगों को डांस करते देखें जा सकतें हँ। असमी नववर्ष यानी बोहाग बिहू नामक इस त्यौहार का लोग हर साल बेसब्री से इंतजार करते हैं। हांलाकि बिहू असम का जातीय त्योहार है।
फिर भी इसकी तुलना बसन्तोत्सव से की जा सकती है। बिहू के लोकगीतों में प्रेम, ऋगांर, प्रकृति, सम्मान एवं आध्यात्मिक भावों से परिपूर्ण गीत-श्लोकों से असम की धरती मानों प्रकृति प्रदत भाव गीतों के रूप में स्वयं प्रस्फुटित हो गई हो।
मारवाड़ी: होली मनाने का अंदाज भी कुछ निराला सा
एक बने रंग ऎसा,
जो लाल, गुलाबी, पीला, नीला,
हरा नहीं हो यार।
इसका रंग कुछ ऎसा हो,
जो तन को नहीं - मन को छू सके। -शम्भु चौधरी
इस अवसर पर हिन्दू धार्मिक परम्परा के अनुसार होलिका दहन की परंपरा रही है, राजस्थानी और प्रवासी राजस्थानी ( मारवाड़ी) के घरों में दस दिनों पहले से ही इस होलिका दहन की तैयारी शुरू हो जाती है, घर-घर में बड्डकुल्ला ( गोबर के होला-होली,चान्द-सितारा, चकला-बेलन, पान-सुपारी, ढाल-तलवार आदि) बनाये जाते हैं, सुख जाने के बाद इनकी रोली, अबीर, गुलाल आदि रंगों से सजाया जाता है, होलिका दहन के दिन ठीक समय में सभी घरों में प्रायः एक ही वक्त पर पूरे परिवार के साथ पूजा की जाती है, बच्चे अपने माता-पिता, दादा-दादी , बड़ों से चरण छूकर आशिर्वाद ग्रहण करते हैं। घर के सभी लोग खाशकर नवनवेली दुल्हन एक सार्वजनिक स्थान पर जहाँ समाज की तरफ से होलिका दहन का स्थान तय किया जाता है, उस स्थान में जाकर इन पूजे गये बड़कुल्लें को जो कि कई मालाओं में पिरोये रहते हैं को प्रज्वलित होलिका स्तल में अग्नि के हवाले कर दिया जाता है। इस दिन हर राजस्थानी परिवारों में होली के पकवान भी बनाये जाते हैं, जो दूसरे दिन छारंडी तक चलते हैं। होली की बात हो तो बिहार- यू.पी. की कादो- कीचड़ और कपड़ा फाड़ होली की बात न हो तो होली की बात ही नहीं पूरी होती। परन्तु सबसे डर इस बात से लगता है जब भी होली आने का समय होता है तो ट्रेन से गुजरने वाले यात्रियों की तो शामत ही आ जाती है। बच्चे खेत और खलियानों से कादो के मोटे-मोटे ढेले बना-बना कर सामने से गुजरती ट्रेनों पर फेंकने लगते हैं हालांकि बच्चे इसे मनोरजन का माध्यम समझते हैं परन्तु कई बार इससे चोट भी लग जाती है। इसे हम होली कह लें या होली के नाम पर कुछ शरारत जो भी कह लें हमें इस समय सावधान होकर ही सफर करना पड़ता है। अरे भाई सिर्फ गांव के लोग ही इसके लिये दोषी नहीं अब देखिये कोलकाता शहर की ही बात लें यहाँ तो सभी पढ़े-लिखे लोग रहतें हैं। कोलकाता शहर के बड़ाबाजार का हाल कुछ इससे भी बुरा होता है। बड़े-बड़े भवन की छतों से पता नहीं कब आपके सर पर रंग भरा पानी का गुब्बारा आ टपकेगा , किसी को पता नहीं। भाई ये तो रंग खेलने का अलग- अलग अंदाज है। बस मजा आपको लेना है। मारवाड़ी समाज में होली खेलने का अंदाज भी बड़ा निराला है, बिहार के एक शहर कटिहार की ही बात लें , तो वहाँ दस - पंद्रह रोज पहले से ही इसकी तैयारी शुरू हो जाती है, होलिका दहन के दिन अलग टोली स्वांग भर कर एक जुलूस के रूप में महात्मा गांधी रोड से निकल कर बड़ाबाजार तक जाती है। इस जुलूस को देखने के लिये भीड़ उमड़ पड़ती है, वहीं मुजफ्फरपुर में छारण्डी के बाद समाज के सभी लोग नया कुर्ता-पेजामा पहन कर अबीर की थैली हाथ में लिये चतुर्भुज स्थान में स्थित शिव मंदिर जाते हैं। आपको जानकर यह सुखद आश्चर्य भी हो सकता है कि यह स्थान शहर का लालबत्ती ईलाका माना जाता है, परन्तु इस दिन इस इलाके की सभी महिलायें समाजिक वातावरण के रूप में देखी जा सकती है। शायद यही कारण है कि इस दिन सपरिवार सभी लोग सज-धज के जा पाते हैं। बिहार की होली देखने के लिये, यहाँ ‘कपड़ा फाड़ मस्ती’ देखने वालों की भीड़ जुटती है और तब शरमाती हुई पत्नी को अपने पति के जो रूप का दर्शन होता है उसका एक अलग ही अंदाज होता है, जब किसी कोने में छुपकर वो यह देखती होगी।
जयपुर में होली के अवसर पर पारंपरिक तमाशा अब भी होता है लेकिन ढाई सौ साल पुरानी इस विधा को देखने के लिए अब उतने दर्शक नहीं आते जितने पहले आते थे। होली के समय पास आते ही तमाशे की श्क्ल में किसी नुक्कड़ नाटक की शैली में मंच सज्जा के साथ कलाकार आते हैं और अपने पारंपरिक हुनर का प्रदर्शन करते हैं। तमाशा की विषय वस्तु पौराणिक कहानियों और चरित्रों के इर्दगिर्द तो घूमती ही है लेकिन इन चरित्रों के माध्यम से सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था पर भी चुटकी ली जाती है। तमाशा शैली के वयोवृद्ध कलाकार गोपी जी मल तो इस बात से ही ख़ुश हैं कि उनकी यह विरासत पीढ़ी दर पीढ़ी अभी चली आ रही है। तमाशा एक ऐसी विधा है जिसमें शास्त्रीय संगीत, अभिनय और नृत्य सभी कुछ होता है। तमाशा सम-सामयिक राजनीति पर टिप्पणी करता है। आमतौर पर तमाशा हीर-राँझा और पौराणिक पात्रों के ज़रिए अपना बात कहता है। इसमें राग जौनपुरी और दरबारी जैसे शास्त्रीय गायन शैलियों को भी शामिल किया जाता है।
बंगाल : कहा जाता है कि बंगाल जो आज सोचता है, वो बाक़ी देश कल सोचता है. कम से कम एक त्यौहार होली के मामले में भी यही कहावत चरितार्थ होती है.
यहाँ देश के बाक़ी हिस्सों के मुक़ाबले, एक दिन पहले ही होली मना ली जाती है। राज्य में इस त्यौहार को “दोल उत्सव” के नाम से जाना जाता है। इस दिन महिलाएँ लाल किनारी वाली सफ़ेद साड़ी पहन कर शंख बजाते हुए राधा-कृष्ण की पूजा करती हैं और प्रभात-फेरी (सुबह निकलने वाला जुलूस) का आयोजन करती हैं। इसमें गाजे-बाजे के साथ, कीर्तन और गीत गाए जाते हैं। दोल शब्द का मतलब झूला होता है. झूले पर राधा-कृष्ण की मूर्ति रख कर महिलाएँ भक्ति गीत गाती हैं और उनकी पूजा करती हैं। इस दिन अबीर और रंगों से होली खेली जाती है, हालांकि समय के साथ यहाँ होली मनाने का तरीक़ा भी बदला है। शांतिनिकेतन की होली का ज़िक्र किये बिना दोल उत्सव अधूरा ही रह जाएगा। काविवर रवीन्द्रनाथ टैगोर ने वर्षों पहले वहाँ बसंत उत्सव की जो परंपरा शुरू की थी, विश्वभारती विश्वविद्यालय परिसर में छात्र और छात्राएँ आज भी पारंपरिक तरीक़े से होली मनाती हैं। लड़कियाँ लाल किनारी वाली पीली साड़ी में होती हैं. और लड़के धोती और अंगवस्त्र जैसा कुर्ता पहनते हैं। वहाँ इस आयोजन को देखने के लिए बंगाल ही नहीं, बल्कि देश के दूसरे हिस्सों और विदेशों तक से भी भारी भीड़ उमड़ती है।
होली का नाम आते ही वह बचपन के दिन आँखों के सामने आ खड़े होते हैं। क्या दिन थे, क्या ज़माना था और क्या उत्साह था होली खेलने का। सुबह-सवेरे ही घर से निकल कर, हम बच्चों की टोलियाँ घर-घर जातीं और दोपहर तक रंगों में सराबोर हो कर अपने घरों की राह लेतीं। चेहरे इतने पुते हुए होते कि कई बार तो माएँ मुँह धुलाने के बाद ही जान पातीं कि यह किसी और का बच्चा है। होली के दिन रंगो में रंग जाना और हंगामा मचा देना, ये ख़ूबसूरत यादें हैं। "जी चाहता है एक बार फिर सब इक्ठ्ठा हों। अब भी वही मोहब्बत है, वही प्यार है। वही समां फिर से बना लें तो क्या रंग जमेगा सचमुच."
‘जो जीए सो खेले फाग’ यानी होली को ज़िंदादिली का त्योहार कहा जाता है। जब मैं ढोल, मृदंग, मजीरा बजाते लोगों को मस्ती में नाचते गाते और ‘बुरा न मानो होली है’ के नुस्ख़े से तनाव मुक्त होते देख, मानो ऎसा लगता है कि भारत के ये अलग-अलग रंग जब एक साथ मिल-जुल कर गाते -नाचते हैं तो दुनिया यह देख कर ही दंग हो जाती होगी कि आखिर ऎसी भी क्या खास बात है इस धरती में कि सारा का सारा देश एक ही दिन में बदल जाता है हर तरफ रंगों की बरसात है।
होली में भांग की बात न हो तो होली का कोई महत्व ही नहीं रह जाता, कहा जाता है होली और भांग का चौली-दामन का साथ है। होली कए समय तो की बार ऎसा लगत है कि कुएँ में ही भांग पड़ गई हो , जिधर देखो उधर ही कुछ न कुछ उलट-पुलट है, जिसे कल तक आपने नाचते नहीं देखा हो उसे यदि नाचते -कपड़ा फाड़ते देख लें तो अपको ऎसा लगेगा कि क्या यह वही लोग है ? हाँ कुछ ऎसा ही हो जाता है, य़दि इस कभी आपके सामने भी या आपके साथ भी हो तो यह मौका हाथ से जाने नहीं दिजीयेगा, पता नहीं यह जीवन फिर कब मिले।
होली की बात हो और अमीर ख़ुसरो न हो तो होली का कोई अर्थ ही नही रह जाता। अमीर खुसरो को कैसे भुला जा सकता है। फाग पर जितने गीत और चौपाईयाँ इनके द्वारा लिखे गये हैं वे आज भी होली के अवसर पर गाये- बजाये जाते हैं, एक प्रकार से इनके गीत लोकगीत बन चुके हैं।
दैया री मोहे भिजोया री
शाह निजाम के रंग में
कपडे रंग के कुछ न होत है,
या रंग मैंने मन को डुबोया री
दैया री मोहे भिजोया री
विभीन्न स्त्रोतों से संकलित लेख - शम्भु चौधरी
रोचक जानकारी के साथ सुन्दर आलेख...आभार.
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