"हम" अपने को कहतें हैं 'मानव'
"वे" भी तो हैं 'मानव'!
परन्तु हम उसे मानव नहीं मानते;
उसे अपनावें, यही सत्य है।
ईश्वर भी यही है।
अज़ान या घन्टे की आवाज से ईश्वर नहीं मिलते;
ईश्वर न तो गिरजघरों में रहते हैं,
न ही गुरूद्वारा, मस्जीद, मंदिर में,
यह तो बस बसा है हमारे-अपके हृदय में,
कैद हो गया है हमारा हृदय,
जो चारदिवारी के बीच खोजता है ईश्वर को,
पूजा उसकी करो जो दीन है,
वे दीन नहीं,
भूखे, नंगे और लाचार हैं या अशक्षित हैं,
उनकी सेवा ऎसे करो, कि वे इनसे मुक्त हो सके,
अपने दान से उनके जीवन को बदलने का प्रयास करें।
वे दीन नहीं,
उनके हृदय में बसा "हृदय"
स्वच्छ व संतुष्ठ है।
भूखे-नंगे-अनपढ़ तो हम हैं;
न तो हम स्वच्छ हैं, न ही संतुष्ठ ;
मानव से मानव की दूरियों को बढ़ाते चले जा रहें हैं।
उनको देखो!
वे कैसे एकत्रित हो नाच-झूम-गा रहें,
परन्तु हम एक कमरे में सिमटते जा रहे हैं
हमारी दूरी तय नहीं,
और वे दूरी को पास आने नहीं देते।
देखो! उनको ध्यान से देखो, और कान खोल कर सुनो!
.....उनकी तरफ ध्यान दो!.........
'सूर्य की किरणें, बादलों का बरसना़......
हवा का बहना, खेतों का लहलहाना......
पक्षियों का चहकना, चांद का मुस्कराना......
मिट्टी की खुशबु, वन की लकड़ी, वंशी की धुन......
सब उनके लिये है, हमारे पास क्या है?
सिर्फ एक मिथ्या अधिकार कि हम 'मानव' हैं
तो वे क्या हैं? - जानवर? ......
नहीं! वे भी मानव हैं, पर ......
हम अनके साथ जानवर सा करते हैं सलुक;
कहीं धर्म के नाम पर, कहीं रंग के नाम पर,
कहीं वर्ण के नाम पर, कहीं कर्ण के नाम पर,
यह सब शोषण है, इसे समाप्त करना होगा;
इसके लिये हमें लड़ना होगा - शम्भु चौधरी
"वे" भी तो हैं 'मानव'!
परन्तु हम उसे मानव नहीं मानते;
उसे अपनावें, यही सत्य है।
ईश्वर भी यही है।
अज़ान या घन्टे की आवाज से ईश्वर नहीं मिलते;
ईश्वर न तो गिरजघरों में रहते हैं,
न ही गुरूद्वारा, मस्जीद, मंदिर में,
यह तो बस बसा है हमारे-अपके हृदय में,
कैद हो गया है हमारा हृदय,
जो चारदिवारी के बीच खोजता है ईश्वर को,
पूजा उसकी करो जो दीन है,
वे दीन नहीं,
भूखे, नंगे और लाचार हैं या अशक्षित हैं,
उनकी सेवा ऎसे करो, कि वे इनसे मुक्त हो सके,
अपने दान से उनके जीवन को बदलने का प्रयास करें।
वे दीन नहीं,
उनके हृदय में बसा "हृदय"
स्वच्छ व संतुष्ठ है।
भूखे-नंगे-अनपढ़ तो हम हैं;
न तो हम स्वच्छ हैं, न ही संतुष्ठ ;
मानव से मानव की दूरियों को बढ़ाते चले जा रहें हैं।
उनको देखो!
वे कैसे एकत्रित हो नाच-झूम-गा रहें,
परन्तु हम एक कमरे में सिमटते जा रहे हैं
हमारी दूरी तय नहीं,
और वे दूरी को पास आने नहीं देते।
देखो! उनको ध्यान से देखो, और कान खोल कर सुनो!
.....उनकी तरफ ध्यान दो!.........
'सूर्य की किरणें, बादलों का बरसना़......
हवा का बहना, खेतों का लहलहाना......
पक्षियों का चहकना, चांद का मुस्कराना......
मिट्टी की खुशबु, वन की लकड़ी, वंशी की धुन......
सब उनके लिये है, हमारे पास क्या है?
सिर्फ एक मिथ्या अधिकार कि हम 'मानव' हैं
तो वे क्या हैं? - जानवर? ......
नहीं! वे भी मानव हैं, पर ......
हम अनके साथ जानवर सा करते हैं सलुक;
कहीं धर्म के नाम पर, कहीं रंग के नाम पर,
कहीं वर्ण के नाम पर, कहीं कर्ण के नाम पर,
यह सब शोषण है, इसे समाप्त करना होगा;
इसके लिये हमें लड़ना होगा - शम्भु चौधरी
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