रविवार, 10 नवंबर 2024

Father day

-शंभु चौधरी-


पिता, पिता ही रहे ,

माँ न बन वो सके,

कठोर बन, दीखते रहे 

चिकनी माटी की तरह।


चाँद को वो खिलौना बना 

खिलाते थे हमें,

हम खेलते ही रहे,

बच्चों की तरह।


देख हमारा ये दर्द 

खुद झटपटाते रहे,

आँखों से आंसू 

टपक न जाय कभी,

सारा गम 

खुद ही पीते ही रहे।


जब बड़े हम हुए,

भूल ही हम गए,

माँ-बाप भी हैं हमारे 

घर में, एकेले पड़े,

जो देते थे लाकर,

खुशियाँ हमें,

अब पराये हो गए 

पतझड़ की तरह।


नौकरी ने हमें 

इस कदर जकड़ दिया 

घर जाने के लिए,

वक्त भी कम पड़ा 

घिरनी की तरह।


जिस चाँदा मामा से 

करते थे बातें दिन-रात,

आज हमको वो देखने भी,

तरस वो गए।


टीमटीमती थी 'लौ'

रौशनी की तरह,

बाढ़ के बीच 

लिए एक आस, 

जिंदगी की तरह।


हम भी जिन्दा हैं अभी 

इस बाढ़ के बीच,

बचा लो 'कोई' 

सब बह गया यहाँ,

आंधी की तरह।


देखते-देखते 

आ गया बुढ़ापा यहाँ 

हाथ की लाठी बन 

सहारा की तरह।


पिता, पिता ही रहे ,

माँ न बन वो सके,

कठोर बन, दीखते रहे 

चिकनी माटी की तरह।

शंभु चौधरी

भीड़

-शंभु चौधरी-

मैं अब भीड़ में खो गया था।
अलग-थलग दिखने के लिए,
बुझाने आग पेट की
उस आग में ही पक गया था।

मैं अब भीड़ में खो गया था।
चारों तरफ हर कोई दौड़े जा रहे थे,
कुछ काम के लिए जा रहे थे,
कुछ काम पाने के लिए जा रहे थे,
सब अपनी-अपनी पसंद की 
भीड़ को ही तलाश रहे थे।

एक तरफ -
कल जिस लोकतंत्र को 
देखा था संसद के दरवाजे पर झूलता, 
झूलसता, तड़पता, झटपटाता,
मृत्युदण्ड का अपराधी बन कर 
अंतिम सांसों के दिन गिनता।

दूसरी तरफ -
अहंकार, पैसा, सरकार
400 पार करने वाली मीडिया 
उस हत्यारे के साथ ख़डी 
मना रही थी जश्न,
अपराधी को उसके अपराध से बचाने के लिए, 
दूसरों को ही अपराधी ठहरा रही थी।

करवट बदला
आज वही लोकतंत्र 
आपकी आवाज बन 
उनके गले की घंटी बन गई थी,
सच सुनते ही 
अपने जान की दुहाई मांग रही थी।
एक संसद की गरिमा का पाठ पढ़ा रहा था,
दूसरा संसद के नियम सुना रहा था।
तीसरा तिलमिला के खड़ा हुआ,
दलाल ने बचाव में कुछ कहा 
चौथा अध्यक्ष महोदय जी को ही 
आँखें दिखा रहा था।
लोकतंत्र की आवाज वापस से 
कैसे जिन्दा हो गई?
इस पर उनसे सफाई मांग रहा था।

अब वह लोकतंत्र की भीड़ में 
खुद को दबा पा रहा था।
जिस भीड़ में लोकतंत्र को 
खुद ही दबा रहा था।

दिनांक : 02/07/2024