Song by Kavi Pradeep
गुरुवार, 4 जून 2020
बुधवार, 3 जून 2020
राजस्थानी कहावत कोश
राजस्थानी कहावत कोश
संपादकः भागीरथ कानोड़िया, गोविन्द अग्रवाल ।
पुस्तकाल पुस्तक संख्या 79973
साभार: राजकीय महाविद्यालय पुस्तकालय, कोटा (राजस्थान)
प्रथम प्रकाशन: पंचशील प्रकाशन, फिल्म कालोनी, जयपूर- 302003
संक्षिप्त इंटरनेट प्रकाशन:-
शंभु चौधरी, कोलकाता के द्वारा श्रद्धेय भागीरथ कानोडिया व श्रद्धेय गोविन्द अग्रवाल की स्मृति में।
जननी जणै तो भक्त जण, कै दाता कै सूर ।
नातर रहजे बांझड़ी, मनी गंवाजे नूर ।।
यह कहावत राजस्थान के शौर्य की कहानी बयान करती है। उस समय राजस्थान में मुसलमानों ने आतंक फैला दिया था। मुगल शासक घर की माँ’ बहूओं - बेटियों को उठा के ले जाते थे। राजस्थान के हर घर में मुसलमानों का आतंक था। घर-घर में शौर्य की गाथाएं रची जा रही थी। मुसलमानों ने चारों तरफ से भारत को गुलाम बना लिया था। उस समय संचार का उतने साधन भी नहीं थे। तब इस प्रकार के लोकोक्तिओं के माध्यम से संदेश का प्रसारण किया जाता था। इस लोकोक्ति में एक औरत दूसरी औरत ( राजस्थान में औरत को लुगाई बोला जाता है।) को कहती है। या तो तुम बांझ ही रहना, समाज की इज्जत मत खोना, तुम ऐसी योग्य संतान जन्म देना जो सबकी रक्षा कर सके। जननी - गर्भवती मां, जणै - जन्म देना, कै दाता - सबकी भलाई करने वाला, कै सूर - वीर पुरुष जो मुगलों से लड़ सके।
नोट: उपरोक्त पुस्तक लॉकडाउन के मध्य नेट के माध्यम से मेरे प्रकाश में आई, चुंकि मैं स्व. भागिरथ कानोडिया जी के कार्य से जिनका ‘‘भारतीय भाषा परिषद’’ की स्थापना में उनके योगदान व उनकी विभिन्न सामाजिक व साहित्यि सेवाओं से परिचित रहा हूँ व साथ ही स्व. गोविन्द अग्रवाल जी के राजस्थानी साहित्य को पढ़ने का भी अवसर मुझे मिला है, इसलिए मेरा यह दायित्व बन जाता है कि इस कार्य को आप विज्ञ-पाठकों तक पंहुचा दूँ । मेरी पूरी क्षमता भी नहीं कि संपूर्ण कहावतों को कम्पोज कर सकूँ , फिर भी जितना संभव हो सका, मैं यहाँ मुख्य-मुख्य प्रचलित कुछ कहावतों को देने का प्रयास किया हूँ । हांलाकि इस पुस्तक को प्रकाशित हुए काफी लंबा अरसा निकल चुका है अतः कहीं-कहीं आज के भावार्थ को समझने के लिए नये शब्दों को जोड़ दिया हूँ। कई मुहावरों को दोहे के रूप में कहा गया है तो कई मुहावरों के भाव लघुकथा पर भी आधारित है । राजस्थान में बरसात को लेकर कई कहावतें बनी है । जैसे - ‘‘अम्मर पीळो, मे सीलो - आसमान का रंग पीला पड़ने से वर्ष की संभावना कम हो जाती है’’ या ‘‘अम्मर रातो, मे सीलो - वर्षा ऋतु में आसमान का रंग में लालीमा छाई हो तो वर्ष की प्रवलता हो जाती है’’ या फिर ‘‘अम्मर हरियो, चुवै टपरियो (छत से पानी का टपटपाना) - वर्षा ऋतु में आकाश का हरापन सामान्य वर्षा का द्योतक माना गया है। ’’ दरअसल इसे कहावतें नहीं कह कर इसे लोकोक्ति कहना ज्यादा उपयुक्त होगा । इसी प्रकार माह के नाम से भी कई कहावतें बनी है । जैसे - असाढ चूक्यो करसो अर डाल चूक्यो वांदरो - आसाढ़ में खेती से चुकना जैसे बंदर का डाली पकड़ने से चूक जाना, अर्थात समय पर चूक जाने से पश्चताना । असाढां सुद नौमी, घण बादल घण बीज, कोठा खेर खखेरेल्यों, झोली राखौ बीज । आषाढ शुक्ल नवमी को यदि आकाश में बादल और बिजली खूब हो तो कोठों में भरे अनाज को झाड़-पौछ के बेच डालो । केवल खेत में बोने के लिए बीज रख लो । आसोजां में मोती बरसै - आश्विन मास में होने वाली थोड़ी वर्ष भी खेती के लिए बड़ी मूल्यवान होती है। आदि । इसी प्रकार लोककथा को भी मुहावरों में प्रचलित किये जाने की परम्परा राजस्थानी भाषा में काफी प्रयोग किया गया है । उदाहरण के लिए - ‘‘इन घर आही रीत, दुरगो सफरां दागियो । - यह कहावत मारवाड़ के राठौर वीर दुर्गादास से जुड़ी है । दुर्गादास ने मारवाड़ राज्य की काफी सेवा की लेकिन कुछ स्वार्थी तत्वों के चलते उसे राज्य से निकाल दिया गया और मृत्यु हो जाने पर उनका अंतिम संस्कार ‘सफरा नदी’ के तट पर कर दिया गया । यानि इस घर की यही रीत चली आई है वफादार को निकाल दो ।’’
इस पुस्तक का प्रकथन व भूमिका का संपूर्ण भाग विद्याथियों व शोधकर्ताओं के लिए नीचे दे दिया हूँ साथ ही प्रकाशक तथा पुस्तक उपलब्ध पुस्तकालय का पूरा विवरण मूल प्रति का पीडीएफ फाइल का लिंक व अन्य सभी जानकारी प्रथम भाग में ही दे दी गई है जिससे आपको पुस्तक देखने व पढ़ने का अवसर आसानी से मिल जाए ।
- शंभु चौधरी, कोलकाता
दिनांक 03 जून 2020
आमुख :
लोक संस्कृति शोध संस्थान, नगर-श्री, चुरू के यशस्वी लेखक श्री गोविन्द अग्रवाल ने एक ओर महत्वपूर्ण कृति साहित्य-जगत को प्रेषित की है । यह है ‘राजस्थानी कहावत कोश’ ।
कहावत या लोकोक्ति लोक-क्षेत्र की अपूर्व वस्तु है । रेवरेंड जेम्स लौंग ने सन् 1875 में Oriental Proverbs में लिखा था - ‘‘ लोकोक्ति या कहावत नीचे गहराइयों से उछाली हुई स्फुलिंग है ।’’ लार्ड बेकन ने लिखा है कि ‘‘ किसी जाति की प्रतिभा, आत्मा और वाक्-वैदग्ध्य उसकी लोकोक्तियों में से उद्घाटित होता है ।’’
लौंग की पुस्तक के ग्यारह वर्ष बाद सन् 1886 में प्रकाशित एस. डब्ल्यू. फैलन की पुस्तक, A Dictionary of Hindustani Proverbs की भूमिका में टेम्पल महोदय ने लिखा कि,
‘‘स्पेन की तरह भारत भी कहावतमय वार्तालापी देश है । कहावतें प्रमाण भी हैं एवं उनका उपयोग निरन्तर होता है और अनंत होता है। यहां के निवासी कहावतों का उपयोग दैनिक बात-चीत में, वाणिज्य-व्यवसाय में सामाजिक पत्राचार में और जीवन की विविध प्रवृत्तियों में, यहाँ तक कि न्यायालयों में भी करते रहतें हैं ।’’
इसमें संदेह नहीं कि भारत कहावतों का देश है । इन कहावतों का पहला संग्रह भी फैलन महोदय ने ही प्रस्तुत किया । फैलन महोदय के उक्त कहावत कोश को इधर सन् 1968 (मार्च) में नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया ने देवनागरी लीपि में प्रस्तुत किया । इसके प्रकाशकीय वक्तव्य में श्री बालकृष्ण केसकर महोदय ने बताया है कि फैलन के पहले इस प्रकार की कोई कृति हिन्दी भाषा के संबंध में मौजूद नहीं थी । यह स्मरण रहे कि फैलन ने इस कोश में मारवाड़ी, पंजाबी, मराठी, भोजपुरी और तिरहुती कहावतों, प्रचलित वाक्य-खण्डों, सूत्रों एवं नीति-वाक्यों का संग्रह किया । इस प्रकार बहुत से तथ्य जीते चले जाते हैं । जिस इलाके में कहावत प्रचलित है, कई बार उसके इतिहास, रीति-नीति पर इन कहावतों, मुहावरों से नई रोशनी पड़ती है ।
फैलन के बाद इस ग्रंथ का संपादन और परिशोधन कप्तान आर.सी. टेम्पल महोदय ने किया । उन्होंने दिल्ली निवासी लाला फकीरचंद वैश की सहायता ली, जो बंगाल सरकार के प्रथम उर्दू सहायक अनुवादक थे ।
यह ‘कोश’ अकारादि क्रम से प्रस्तुत किया गया है । इस हिन्दी संस्करण का संपादन हिन्दी लोक-साहित्य के जाने-माने विद्वान् श्री कृष्णानंद गुप्त ने किया है । तो, फैलन महोदय का यह कोश हिन्दी-हिन्दुस्तानी कहावतों का पहला कोश है ।
इसमें कोई संदेह नहीं कि फैलन ने मार्ग-दर्शक कार्य किया । इसके बाद हिन्दी क्षेत्र में ही बहुत काम हुआ है, यद्यपि इस क्षेत्र अभी बहुत करना शेष है ।
राजस्थान भी इस क्षेत्र में पीछे नहीं रहा और राजस्थानी कहावतों के कतिपय संग्रह भी प्रकाशित हो चुके हैं। साथ ही यह बात भी ध्यान आकिर्षित करती है कि राजस्थान के ओर भी कई क्षेत्र अभी ऐसे पड़े हुए हैं जो किसी संग्रहकर्ता की बाट जोह रहे हैं जैसे मेवाती बोली की कहावतें, जयपुरी की कहावतें, शेखावाटी की कहावतें, भरतपुर- करौली की कहावतें आदि-आदि ।
राजस्थानी कहावतों पर प्रथम शोधकर्ता विद्वान् डॉ. कन्हैयालाल सहल से सभी परिचित है । अब यह ‘राजस्थानी कहावत कोश’ पाठकों के सामने है । इसके संपादक है श्री (अब स्व.) गोविन्द अग्रवाल एवं भागीरथ कानोड़िया । यों तो श्री भागीरथ कानोड़िया जैसे लोक-वार्ता और लोक-साहित्य के महान् धनी का आशीर्वाद भी मिल जाता तो भी कार्य की संपन्नता में चार चांद लग जाते, किन्तु यहां तो वे स्वयं भी एक संपादक हैं, अतः इसमें संदेह के लिए स्थान नहीं रहा कि कोश बहुत उपयोगी सिद्ध होगा ।
फिर, श्री गोविंद अग्रवाल स्वयं लोक-साहित्य और इतिहास के क्षेत्र में बहुत उपयेगी कृतित्व दे चुके हैं और बहुत यश अर्जित कर चुके हैं । इस कोश का काम उन्होंने एक संपादक के रूप में संपन्न किया है, यह एक और ठोस उपलब्धि उनके यश-बर्द्धक कार्यों में जुड़ी है ।
इनका यह कार्य ऐसा है कि वस्तुतः इसे किसी भूमिका की आवश्यकता नहीं थी । इस कोश में 3209 कहावतें एवं लगभग 350 संदर्भ कथाएँ भी यथा-स्थान दी गई है। ये संदर्भ कथाएँ इस कोश की उपयोगिता को और बढ़ा देती है । साथ ही जिस कहावत के रूपान्तर या पाठान्तर मिलते हैं, वे भी दे दिये गये हैं । अर्थ भी सरल भाषा में दिये गये हैं । इस प्रकार संपादकों ने इसे सर्वतोभावेन उपयोगी बनाने का प्रयत्न किया है । मेरी दृष्टि में यह अभिनंदनीय कार्य है ।
मुझे पूरा भरोसा है कि इस कोश का अच्छा स्वागत होगा ।
- डॉ. सत्येन्द्र
दो शब्द
कहावतें या लोकोक्तियां अत्यन्त प्राचीन काल से ही संसार की विभिन्न भाषाओं में चलती आ रही हैं एवं इनका क्षेत्र बड़ा व्यापक रहा है । भारत के अन्य प्रदेशों की तरह राजस्थान में भी कहावतों का विपुल भण्डार है। ये कहावतें बड़ी सजीव तथा सार्थक हैं और देश-विदेश की किसी भी भाषा की कहावतों से होड़ लेने में समर्थ हैं।
राजस्थान शताब्दियों तक विभिन्न राजनीतिक इकाइयों में बटा रहा है, अतः स्थान एवं बोली भेद के कारण इन कहावतों के स्वरूप में थोड़ा-बहुत अंतर अवश्य परिलिक्षित होता है । प्रस्तुत संग्रह में मुख्य रूप से राजस्थानी कहावतों के चूरू एवं शेखावाटी क्षेत्र में प्रचलित स्वरूप को ही लिया गया है ।
इस संग्रह में खेती-पाती, व्यापार-वाणिज्य, खान-पान, वेश-भूषा, पर्व-त्यौहार, रीति-रिवाज, पशु-पक्षी, घर-परिवार एवं देश व समाज आदि पहलुओं से संबंधित कहावतें हैं जिनमें मानव-जीवन के कड़वे-मीठे अनुभव समाये हुए हैं ।
सुदीर्घ काल से ये कहावतें लोक-मुख पर आसीन रह कर ही पीढ़ी दर पीढ़ी अपनी मंजिलें तय करती आ रही हैं । लेकिन अब इनका मार्ग अवरुद्ध होने लगा है और ये तेजी से विस्मृति के गर्त में समाती जा रही है । आधुनिक शिक्षा-प्रणाली के कारण आज का छात्र एवं युवा वर्ग इन कहावतों से कटता जा रहा है । पिछली पीढ़ी को याद हैं, उतनी भावी-पीढ़ी को याद नहीं रहेंगी । इसलिए लोक-मुख पर अवस्थित जितनी भी कहावतें लिपिवद्ध हो सकें उतना ही श्रेयकर है।
राजस्थान के जो लोग इस प्रदेश को छोड़कर अन्यत्र चले गये हैं और वहीं बस गये हैं वे भी इन कहावतों के माध्यम से राजस्थान की धरती एवं यहां के जन-जीवन के साथ अपना संपर्क बनाये रख सकेंगे, राजस्थान की स्मृतियों को संजोये रख सकेगें, ऐसी आशा है।
इन्ही सब बातों को दृष्टिगत रखते हुए यह ‘राजस्थानी कहावत कोश’ प्रस्तुत किया जा रहा है । यदि यह आंशिक रूप में भी अपने उद्देश्य की प्राप्ति कर सका तो हम अपने प्रयत्न को सफल समझेंगे ।
प्रस्तुत कहावत कोश में 3209 कहावतें दी गई हैं एवं अधिकांश कहावतों के सरल अर्थ या भावार्थ भी दे दिये गये हैं । लगभग 350 कहावतों की संदर्भ कथाएँ भी संक्षेप में दी गई हैं, जिससे संबंधित कहावत का आशय पूरी तरह स्पष्ट हो जाता है । इनमें एक-दो प्रतिशत कहावतें ऐसी भी हैं जिनका भाव हमारे लिए भी एकदम स्पष्ट नहीं था, लेकिन ऐसी कहावतें के अर्थ खींच-तान कर बिठाने की चेष्टा नहीं की गई है । कहावत और मुहावरे का चोली-दामन का साथ है अतः संभव है कि एक-दो प्रतिशत मुहावरे भी इस कोश में पा गये हों।
यद्यपि प्रूफ संशोधन में प्रर्याप्त सावधानी बरती गई है, तथापि डाक द्वारा प्रूफ आने-जाने की व्यवस्था के कारण हम स्वयं केवल एक बार ही प्रूफ देख पाये हैं, अतः प्रूफ विषयक जो भी भूलें इस कोश में रह गई हों, उन्हें विज्ञ-पाठक सुधार लेने की कृपा करेगें।
प्रस्तुत कोश से पूर्व राजस्थानी कहावतों के कुछ संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं । यद्यपि ये सभी कहावत-संग्रह हमारे देखने में नहीं आये, तथापि जिन प्रकाशित पुस्तकों या पत्र-पत्रिकाओं से सहायता ली गई है उनकी सूची अंत में दे दी गई है।
लोक-साहित्य के मूर्द्धन्य विद्वान् श्रद्धास्पद डा. सत्येन्द्र जी ने प्रस्तुत कोश की भूमिका लिख देने की कृपा की है, इसके लिए उनके अत्यन्त कृतज्ञ हैं । प्रूफ संशोधन में चि. नन्दकिशोर अग्रवाल (सुपुत्र श्री गोविन्द अग्रवाल) ने पूरा समय व सहयोग दिया है ।
- भगीरथ कानोड़िया, गोविन्द अग्रवाल ।
राजस्थानी कहावतें:
♦ अंजळ बड़ौ बलवान - दाना-पानी बड़ा बलवान होता है। जहां का दाना-पानी लिखा होता है, मनुष्य को वहीं जाना पड़ता है।
कित कासी कित कासमीर, खुरासाण गुजरात।
दाणों पाणी परसराम बांह पकड़ लेजात।
♦ अंत भलो सो भलो - जिसका अंत सुधर जाए, वही भला है।
♦ अंधाधुंध की सायवी, घटा टोप को राज - सत्ता पर मुर्ख के शासन से राज्य में अंधेर गर्दी और अराजकता का वातावरण फैल जाता है। सायवी - सत्ता
♦ अंधेरी रात में मूंग काळा - अज्ञान व्यक्ति को वस्तुस्थिति का सही ज्ञान नहीं हो सकता।
♦ अंवळचंडी रांड, खावै लूण बतावै खांड- राजस्थान में रांड शब्द विधवा का पर्यायवाची है। इस कहावत का भावार्थ है कि ‘‘रांड करती कुछ है, कहती कुछ है।’’
♦ अक्कल अर अक्खड़ एक घर कोनी खटावै - अक्खड़ (उद्धत या निर्बुद्धि) आदमी का निर्वाह कभी समझदारों के बीच नहीं हो सकता। कोनी - नहीं, खटावै - जैसे दाल में कंकर, नहीं मिलान होना।
♦ अक्कल को न दाणो, मन को भोत स्याणो- निपटआदमी अपने आप को बड़ा बुद्धिमान समझता है।
दाणो - दाना, भोत - बहुत, स्याणो - चालाक, निपट - अनपढ़, मुर्ख।
♦ अक्कल तो आई, पण आई धणी मर्यां पीछै - विनाश हो जाने के बाद अक्ल का आना। औरत को लक्ष्य कर कही गयी कहावत है जिसमें औरत को ताना कसा जाता है कि उसके पति के मरने क बाद उसे बुद्धि आई।
धणी - स्वामी, पति।
♦ अक्कल दुनियां में ड्योढ ईं है, एक आप में आधी दुनियां में- पूरे संसार में अक्ल डेढ ही है, एक अति चालाक व्यक्ति में और आधी बाकी दुनियां में।
♦ अक्कल न बाड़ी नीपजै, हैत न हाट विकाय- ना तो अक्ल घर में पैदा होती है ना ही प्रेम बाजार में विकता है।
♦ अड़ी-बड़ी में आडो आवे जिको ई आप को- मुसिबत के समय जो काम आये वहीं सच्चा मित्र है।
अड़ी-बड़ी - संकट के समय।
♦ अणहोणी होणी नहीं, होणी हो सो होय - अनहोनी कभी नहीं होती, परन्तु होनी को कोई टाल भी नहीं सकता।
♦ अणी चूकी, धार मारी - जरा सी चूक पर दुर्घटना हो सकती है।
अणी - नाई द्वारा उपयोग में आने वाला उस्तरा।
♦ अम्मर पीळो, मे सीलो - आसमान का रंग पीला पड़ने से वर्ष की संभावना कम हो जाती है।
♦ अम्मर रातो, मे सीलो - वर्षा ऋतु में आसमान का रंग में लालीमा छाई हो तो वर्ष की प्रवलता हो जाती है।
♦ अम्मर हरियो, चुवै टपरियो (छत) - वर्षा ऋतु में आकाश का हरापन सामान्य वर्षा का द्योतक माना गया है।
♦ अति लोभ न किजिए, लोभ पाप की धार।
एक नारेल कै कारणै, पड़्या कुवै में च्यार।
संदर्भ कथा - एक पंडित बहुत लोभी था। वह एक दिन नारियल खरीदने बाजार गया। मौल-भाव करने लगा, एक दुकानदार ने चार रुपये बोले तो उससे तीन रुपये में मांगा। तीन वाले से दो रुपये में, इसी प्रकार दो रुपये बोलने वाले दुकानदार से एक रुपये में अंत में वह नारियल के गाछ पर चढ़कर मुफ्त का नारियल तौड़ने लगा और धड़ाम से नीचे गिड़ पड़ा। उसकी हड्डी-पसली तुट कर चार हो गई। ईलाज कराने में रुपये खर्च हुए वह अलग से।
♦ अतै सो खपै - अति का एक दिन विनाश अवश्यंभवी है।
♦ अतौताई बेटो जायो, नाळै पैली नाक कटायो - अति उतावलापन नूकशानदेह होता है।
नाळै - बच्चा जन्म के समय जच्चा-बच्चा को अलग करने की नली, जेर, आंवल-नाल भी कहते हैं।
♦ अनाड़ी को गुरु अनाड़ी होवै - मुर्ख आदमी का गुरु भी मुर्ख ही होता है।
♦ अन्न मुगतां, घी जुगतां - अनाज पैट भर कर खायें पर घी अपनी सामर्थ्य के अनुसार ही खाना चाहिये।
♦ असली लाजै, छिनाल गाजै- सभ्य लोग असभ्य भाषा पर चुप रहते हैं वही असभ्य लोग गरजने लगते हैं।
♦ असाढ चूक्यो करसो अर डाल चूक्यो वांदरो - समय पर चूक जाने से पश्चताना।
जैसे आषाढ़ माह में किसान खेती करने में चूक जाता है तो उसे साल भर पश्चताना पड़ाता है। वैसे ही जैसे वृक्ष पर छलांग लगाते बंदर की जरा सी चूक से वह जमीन पर गिर जाता है।
♦ आंख अर कान को च्यार आंगळ को आंतरो - ( चार आंगल को आंतरो काच्ची-पाकी बात।) आंख से देखी बात सच्ची होती है जबकि कान से सुनी बात कच्ची मानी जाती है। जैसे कान भरना, चुगली करना आदि।
♦ आंख न दीदा, काढै कसीदा - बड़ी-बड़ी बात हांकना। अक्ल तो भैंस चरने गई पर बात लंबी-लंबी हांकना।
♦ आंख में काजळ को के बोझ - जो अच्छा लगता है वह मन को संतोष देता है और जो व्यक्ति अच्छा नहीं लगता वह फूटी आंख भी नहीं सुहाता। जैसे सास को अपनी बेटी प्यारी लगती है और बहु चुडै़ल। जैसे सौतेले बच्चों के साथ माँ का व्यवहार। अपने बच्चे कैसे बड़े हो जाते हैं कुछ पता ही नहीं चलता। वहीं पराये बच्चों को पालना एक पहाड़ सा लगने लगता है।
♦ आंटे आई मरै बिलाई - अतिचालाक व धूर्त व्यक्ति को चालाकी से मारना होता है।
आंटे आई - आढ़े हाथ लेना।
♦ आंधो जाणौ, आंधै की बलाय जाणै - जिस पर संकट आता है वही उस संकट से निपटना सीख लेता है। अंधा व्यक्ति की आत्मा जानती है कि उसे क्या परेशानी होती है।
♦ आंधो बजाज तोल कर देखै - अंधा व्यक्ति भले किसी वस्तु को देख नहीं सकता हो, वह उसके वजन से उस वस्तु के मूल्य अथवा उसकी कीमत का अंदाज लगा लेता है।
♦ आई तो आवै जिकी आवै, अण आई भी आज्या - आपदा के समय संकट चारों तरफ से आता है।
जिकी आवै - जो आती है।
♦ आऊँ न जाऊँ, घरां बैठ्या मंगाल गाऊँ - हिन्दी में एक कहावत है ‘‘काम का धाम का सो मन अनाज का।’’
♦ अरकरै देव नै सै निमै - उग्र इंसान के आगे झूक कर बच जाना ही समझदारी है।
अरकरै - अकड़े, देव - देवता, नै- को, सै- सब, निमै - झूकना ।
♦ आखा थोड़ा अर देव घणा - आखा - अन्न के दाने, अक्षत थोड़ा दान देकर भगवान से अधिक की इच्छा करना।
♦ आग लगन्तै झूँपड़ै, जो निकसै सो लाभ - संकट के समय जो बच गया वही लाभ।
♦ आछी म्हारी टाटी, खावां दाल-बाटी - अपने घर की कच्ची-पक्की रोटी से ही गुजर-बसर करना।
टाटी- घर, दाल-बाटी - कच्चा-पक्का खाना, जैसे लिट्टी-चौखा।
♦ आज मरां, काल मरां, मर्या-मर्या फिरां।
घाल कचोळै दळमळां, जद बनड़ा होयां फिरां।
- जिस प्रकार एक नशेड़ी, अफीम के बिना पागल से होने लगता है और जैसे ही उसे नशा खाने को मिल जाता है तो वह खुद को संसार का सबसे बड़ा ज्ञानी समझने लगता है। घाल - प्राप्त हो जाना, कचोळै - अफीम जैसी नशली चीज, बनड़ा - बींद, जवांई, दुल्हा, होयां - होकर, फिरां - घुमना।
♦ आठ हाथ की कागड़ी, नौ हाथ को बीज - अपनी औकात से ज्यादा व्यवसाय कर लेना या काम करना।
कागड़ी - धागा, बीज - मोती अर्थात जगह कम समान ज्यादा।
♦ आड़ू कै घी में कांकरा - आड़ू व्यक्ति हर काम में खोंच निकलेगा ही। अर्थात घी में भी उसको दोष दिखाई देगा।
♦ आड़ू नै टक्को दे देणो, अक्कल नई देणी - आड़ू व्यक्ति पैसा देकर विदा कर दो पर अक्ल नहीं दो, अन्यथा वह कुछ न कुछ क्षत्ति कर के ही मानेगा।
♦ आडै दिन रंगी-चंगी, वार-त्यौहार फिरै नंगी - कुछ लोगों को अच्छे वातावरण को खराब करने में ही मजा आता हे।
आडै दिन - रोजाना, रंगी-चंगी - सज-धज के रहना।
♦ आदमी बस्यां, सोनो कस्यां - आदमी की परख समाज करता है जैसे सोना को घिस के परखा जाता है।
♦ आधी छोड़ पूरी न धावै, वींकी आधी मुँह से जावै - लालच के कारण आया हुआ धन भी चला जाता हे।
संदर्भ: एक कुत्ता आधी रोटी लेकर एक तलाब के पास खड़ा था, उसने तलाब में अपनी परछाई देखी, जिसमें सामने भी एक कुत्ता आधी रोटी लेकर खड़ा उसे दिखाई दिया। वह सोचा कि क्यों न उसकी रोटी भी छीन ली जाए पर जैसे ही वह उस परछाई वाले कुत्ते पर भौंका उसके मुँह की आधी रोटी भी तलाब में गिर गई।
हिन्दी में मुहाबरा है - लालच बुरी बला है।
♦ आप-आप की रोट्यां, नीचै सै खीरा देवै - हर लोग खुद के स्वार्थ को पहले देखता है यही स्वभाव है। जैसे हर व्यक्ति अपनी रोटी बनाने के लिए रोटी के नीचे ही लकड़ी जलाता है।
खीरा - आंच देना, आग जलाना। जैसे माँ अपने बच्चे का पक्ष ले तो दोष नहीं देखना चाहिये। यह मानव स्वभाव है।
♦ आप डूबतो पांडियो, ले डूब्यो जजमान - खुद तो डूबा सो डूबा- बचाने वाले को भी साथ में ले डूबना।
♦ आया तो लाख का, नई तो सवा लाख का - जो आया सो अच्छा, संतोष कर लेना।
♦ आय ए भांण लड़ाँ, ठाली बैठी कै करां - खाली बैठे लोग आपस में ही लड़ने लगते हैं। खाली दिमाग शैतान का घर। भांण - बहन, ठाली - बैकार।
♦ आळस नींद किसान नै खोवै, चोर न खोवै खांसी।
टक्को ब्याज मूल न खोवै, रांड नै खोवै हांसी।
- ये चार लक्षण आलसीपन, खांसी, ब्याज व हंसी सबको लाभ नहीं देती। जैसे किसान खेत में आलस करे तो फसल खराब हो जायेगी। चोर, चोरी करते समय खांस दे तो पकड़ा जायेगा। वैसे ही महाजन का ब्याज, मूल से भी बड़ा हो जाता है। और विधवा के हंसने से उसके पीछे मर्द गिद्ध की तरह मंडराने लगते हैं।
♦ असाढां सुद नौमी, घण बादल घण बीज,
कोठा खेर खखेरेल्यों, झोली राखौ बीज।
- आषाढ शुक्ल नवमी को यदि आकाश में बादल और बिजली खूब हों तो कोठों में भरे अनाज को झाड़-पौंछ के बेच डालो। केवल खेत में बोने के लिए बीज रख लो।
♦ आसोजां में मोती बरसै - आश्विन मास में होने वाली थोड़ी वर्षा भी खेती के लिए बड़ी मूल्यवान होती है।
♦ इक मत ‘के’ , दो मत ‘कै’ - राजस्थानी भाषा को मुहावरों से बच्चों को कैसे याद कराया जाता है। एक मात्रा से ‘के’ जिसे दो शब्दों को जोड़ने में प्रयोग किया जाता है। जैसे - राम के पास अपना घर है। या राजस्थानी में ‘के’ का अर्थ ‘क्या’ से भी लगाया जाता है और दो मात्रा के लगने से ‘कई’ हो जाता है।
♦ इसी खाट इसा ही पाया, इसी रांड इसा ही जाया - व्यंग्यात्मक शैली में नालायक संतान पर मुहावरा का प्रयोग। कहने का तात्पर्य स्पष्ट है कि जैसी घाट होगी उसका पाया भी वैसा ही होगा। औरत के स्वाभव के अनुरूप ही उसकी संतान का स्वाभव होता हे। नोट - राजस्थान में औरतों को ‘रांड’ बोल के गाली दी जाती है। रांड का अर्थ होता है बिना कसम की औरत। ‘सांड’ शब्द से ‘रांड’ शब्द बना है। भारत में अन्य भाषाओं में ‘रण्डी’ शब्द तो काफी प्रचलित है परन्तु ‘राण्ड’ शब्द का प्रयोग राजस्थानी भाषा से जन्मा माना जाता है।
♦ ऊँट बिलाई ले गई, हांजी-हांजी कहणो - ठाकरां की इच्छा के विरूद्ध कुछ नहीं कहना।
इसे लोकदोहे में भी कहा गया है -
जाट कहे सुण जाटणी, अैई गांव में रहणो।
ऊँट बिलाई ले गई, हांजी-हांजी कहणो।।
रहणो - रहना हो तो, हांजी - हां जी , ठाकरां - जमींदार, राजनेता।
♦ ऊंदरी का जाया तो बिल ई खौदै - चुगलखोर अपनी आदत से मजबूर होता है।
ऊंदरी - चूहिया, इदूर।
♦ ऊंता कै किसा सींग होवै ?- मूर्खों को कोई पशुओं की तरह अलग से सींग नहीं होते, लेकिन उसके व्यवहार से पता चलता है कि वह मूर्ख है। ऊंता - मूर्ख ।
♦ ऊधो का न लेणो, माधो का न देणो- न तो किसी से उधार लो ना ही किसी को उधार दो।
♦ ऊठौ सासूजी सांस ल्यो, मैं कातूं थे पीसल्यो- चर्खा कातती सास पर झूठा अहसान थोपती बहु कहती है - आप थोड़ा सांस ले लो, मैं चर्खा कात देती हूँ, तब तक आप चक्की पर आटा पीस लो। यानि अहसान भी, बदले में काम भी अपेक्षकृत भारी सौंप देना। अति धूर्त लोग।
♦ अेक घर तो डाकण ईं छोड़े - दुष्ट प्रकृति के आदमी भी एक घर छोड़ के ही डाका डालते हैं।
♦ एक भेड़ कुवै में पड़ै तो लैर सै जा मड़ै - एक भेड़ भूल से कुएँ में गिर गई तो उसके पीछे-पीछे सारी भेड़ें उसी कूएं में जा गिरती है। हिन्दी में इसे भेड़िया चाल भी कहा जाता है। जब कोई व्यक्ति बिना सोचे समझे किसी की नकल कर उसी का अनुसरण करता है तो उसे ‘भेड़ चाल’ का नाम दे दिया जाता है।
♦ अेक सैर की सोळा पोई, सवा सैर की एक।
वो निगोड़्यो सोळा खाग्यो, मैं वापड़ी अेक।।
- बंटवारा करते समय चालक व्यक्ति अपने हिस्से अधिक रख कर भी दूसरों को गिनाता फिरता है कि उसे तो कुछ नहीं मिला। जबकि सोलह रोटी का वजन एक रोटी से कम है। फिर भी ऐसा लगता है कि सोलह ज्यादा है एक कम है। इसे आंख का भ्रम भी कहा जाता है।
♦ अैरण की चोरी करी, कर्यो सुई को दान।
ऊँचो चढ़ देखण लाग्यो, कद आवै वीवांण।।
- जिन्दगी भर छल-कपट किया, मरने के समय थोड़ा सा दान देकर स्वर्ग की कामना करने वाले व्यक्ति पर व्यंग्य। अैरण - जीवन भर, वीवांण - पुष्पक विमान।
♦ कटै ताऊ का, सीखै नाऊ का - नवसिखिया, नये-नये नाई का काम करने वाले के उस्तरे से लोगों के गाल कट जाते हैं पर जिसका गाल कटा वह नवै को कोई दोष नहीं दे पाता। दूसरों का क्षति कर के ज्ञान प्राप्त करना।
♦ कपड़ा फाट गरीबी आई, जूती फाटी चाल गमाई - कपड़ा फाड़ के गरीब तो बना जा सकता पर वही नकल जूते -चप्पल पर नहीं की जा सकती। क्योंकि जूता फटने से चला नहीं जा सकता। हर बनावटी काम सफल हो जरूरी नहीं।
♦ कपूत जायो, भलो न आयो - कुपुत्र जन्म से पहले ही मर जाए तो भला है। जायो- जन्मना।
♦ ‘कम’ खाणो अर ‘गम’ खाणो चोखो - कम भोजन व गम को खा जाना दोनों ही अच्छा है।
♦ करणी आपो आप की, के बेटो के बाप - सबको अपने-अपने कर्म का फल भोगना ही पड़ेगा।
♦ कलकत्तै को धारो, वाप सें बेटा न्यारो - देस में यह कहावत प्रचलित थी कि कलकत्ते में बसने वाला परिवार से अलग हो जाता है।
♦ कळजुग में झूठ फळापै - कलयुग में झूठ पर लोगों को जल्दी विश्वास हो जाता है। फलता-फूलता है।
♦ कलम दीवानी वह गई, के वंदे का सारा- हुक्मरानों के मुँह से निकले शब्दों से किसी की जान भी जा सकती है।
♦ कढी होठां, चढी कोठां- मुंह से निकली बात बिजली की तेज गति से फैल जाती है। कोठां - यहां कोठा शब्द का प्रयोग पूरे मकान से की गई है। उस कोठी में रहने वाले सभी लोग को पता हो जाना। जैसे कोई बहू यह बोल दे कि वह गर्भवती हो गई है। उसके होठ से निकलते ही यह बात पूरे मकान के लोगों को पता हो जाना।
♦ कमाई गैल समाई - आय के अनुसार व्यव करने की सामर्थ्य होना।
♦ काख में छोरो, नगर में ढिंढोरो - हिन्दी में गोदी में लड़का गांव में ढिंढोरा (खोजना)।
♦ कागा किसा धन हड़ै, कोयल किस कूं देय।
जीभड़ल्यां कै कारणै, जग अपणो कर लेय।।
- लोगों के मुंह से निकले शब्दों का महत्व है। कौआ किसी का धन न तो लेता है ना कोयल किसी को धन देती है, पर दोनों की वाणी, एक लोगों को मंत्रमुग्ध कर देती है तो दूसरा विरक्त कर देता है। इस जीभ के कारण जग अपना या पराया हो जाता है।
♦ काच कटोरो नैण लळ, मोती दूध’र मन्न।
इतणा फाट्या ना मिलै, लाखां करो जतन्न।।
- काँच का प्याला टूट जाने से, आंख का पाणी चले जाने से, दूध फट जाने से वापस उसे जोड़ा नहीं जा सकता चाहे कितना भी प्रयत्न कर लें।
♦ काचै कूंपो ऊंट को, या तो मीन न मेख।
वामण कै सिर पर चढ्यो, संगत का फल देख।।
- मरे हुए ऊंट के चमड़े को स्पर्श करना यों तो ब्राह्मण पाप समझता है पर उसी चमड़े के कुप्पे (थेली) में घी भरा हो तो वही ब्राह्मण उस थेली को सर पर उठा कर घर ले जाता है। एक ही वस्तु संगत से अपना गुण बदल लेती है।
♦ कासी जी गया अर म्हेई जीत्या।
म्है म्हारी ही म्हारी दली, दूसरे की सुणी ई कोणी ।।
- हमने काशीजी जा कर विद्वानों से शास्त्रार्थ किया तो जीत हमारी ही हुई। क्यों कि मैं अपनी ही अपनी दलता रहा किसी की सुनी ही नहीं। अर्थात मुर्खों से कभी भी सका नहीं जा सकता।
♦ कीड़ी चाली सासरै, नौ मण सुरमो सार - चींटी भी अपने आंख में सुरमा लगा के घुमे तो उसको कौन देखै। वैसे ही अकिंचन व्यक्ति अपनी औकाद से अधिक आडम्बर करे तो उसकी समाज में कोई पूछ नहीं होती। भले ही वह खुद में राजी हो जाए।
♦ के करै नर बांकड़ो, जद थैली को मुँह सांकड़ो ! - जब तंगी आती है तो मनुष्य लाचार/ असहाय हो जाता है।
♦ खर घू घू मूरख नरां, सदा सुखी प्रिथिराज - गधा, उल्लू और मुर्ख मनुष्य सदा सुखी रहता है क्योंकि उसे अपने किये का कभी पश्तावा नहीं होता।
♦ खाज पर आंगळी सीदी जावै - अपने स्वार्थ का घ्यान रखना।
♦ खाणो पीणो खेलणों, सोणो खूंटी ताण।
आछी डोवी कंथड़ा, नामरदी कै पाण।।
- पत्नी द्वारा अपने निठल्लू पति को ताना कसते हुए कहती है कि केवल दिन भर खाना, पीना, मौज मस्ती कर के घर आना और कुरता खूँटी पर टांग कर सो जाना बस आपका यही काम रह गया। यह सब आदत नामर्द लोगों की पहचान होती है। मेरा तो करम ही फूट गया। नालायक लोग के लिए उपयुक्त।
♦ खारी वोली मावड़ी, मीठा वोल्या लोग।
खारी लागी मावड़ी, मीठा लाग्या लोग।।
- माँ की बात बचपन में बहुत खारी लगती है पर जब समझदारी आती है तो बचपन में माँ की कही सारी बात याद आती है। जबकि जिनकी बात बचपन में अच्छी लगती थी उन बातों को याद करने से लगता है कि वे लोग गलत थे। मावड़ी राजस्थान की एक बोली, जो बोलने-सुनने में तीखी लगती है पर वहाँ के लोगों का व्यवहार बहुत मधुर माना जाता है। जो लोग आपके मुंह पर ही खारा बोल दे वे आपके हितैशी हैं। उनके मन में कोई छल नहीं होता।
♦ खेती करै सो राखै गाडो, राड़ करै सो वोलै आडो - किसान अपने साथ वैलगाड़ी जरूर रखता है वैसे ही झगड़ा करने वाले लोग हमेशा टेढ़ा / उल्टे ही बात करतें हैं। राड़ - झगड़ा, आडो - उल्टा।
♦ खैरात बंटै जठै मंगता आपैई पूंच ज्यावै - जिस जगह मुफ्त (खैरात) का माल मिलता है वहाँ मांगने वाले अपने आप चले आते हैं।
♦ खोटो पीसो अर कपूत बेटो, आड़ी-बाड़ी आडो आवै - खोटा पैसा और बिगड़ी हुई संतान भी संकट के समय काम आता है।। आड़ी-बाड़ी - असमय, आडो - काम, आवै - आना।
♦ खोद्यो डूंगर, निकळयो ऊंदर - हिन्दी में प्रचलित कहावत ‘‘खोदा पहाड़, निकली चुहिया। ’’
♦ खोयो ऊंट घड़ै में ढूंढे - खोया हुआ समान को खुद के हाथ के हथेली में भी खोजना चाहिये।
♦ गंगा गया गंगादास, जमना गया जमनादास - सिद्धांत हीन लोग की पहचान। जैसे आयाराम-गयाराम।
♦ गंडकां से गांव की गलियाँ छानी कोनी। गंडकां - कुत्ता - कुत्तों से गांव की गली छुपी नहीं होती। व्यंग्य के रूप में कहीं भी उपयुक्त प्रयोग किया जा सकता है।
♦ गई रांड सो घर-घर डोलै, गयो घर सो घुग्धू वोलै।
गयो राज सो मानै गोलै, गयो साह सोघटू तोलै।।
- घर-घर घुमने वाली औरत, जिस घर में उल्लू का वास हो, जिस राजा के पास चपलूसों की चलती हो और जो व्यापारी कम वजन तौलता हो उनका एक दिन नाश होना निश्चित है।
♦ गरज मिटी रै गांगला, गाँव सें आटो मांगल्या - अपनी गरज समाप्त होते ही आदमी खड़ा अखड़ने लगता है। गुरु अपने चेला से दिनभर काम करवाता है जब काम नहीं होता तो उसे गांव से आटा मांगने भेज देता है।
♦ गोळी को घाव भरज्या पण बोली को कोनी भरै - पिस्तौल की गोली का घाव भर जाता है परन्तु बोली का नहीं।
♦ ग्यानी से ग्यानी मिलै, करै ग्यान की बात।
मूरख से मूरख मिलै, कै जूता कै लात।।
- भावार्थ स्पष्ट है। दो ज्ञानी आपस में ज्ञान की बात करते हैं वहीं दो मुर्ख यदि आपस में मिल जाए तो मार-पीट होना तय है।
♦ घड़ी में तौला - घड़ी में मासा - अपनी बात से पलटने वाला व्यक्ति।
♦ घणी सराई खीचड़ी, दांतां कै चिपज्या - किसी की ज्यादा चापलूसी मत करो नहीं तो वह चिपक जाएगा। उल्टे गले पड़ना।
♦ घर का देव, घर का पुजारी, घर का ही धोक देवण आळा। - फर्जी संस्था का गठन कर लेना।
♦ घर का पूत कुंआरा डोलै, पाड़ोस्यां का फैरा - अपने घर के काम के प्रति उदासीन रहना व समाजसेवा का कार्य करना।
♦ घर की मुरगी दाळ बराबर - अपनो का कोई महत्व नहीं होता।
♦ घर को जोगी जोगनो, आण गांव को सिद्ध - अपने गांव के विद्वान की कोई कद्र नहीं करता जबकि दूसरे गांव से आया व्यक्ति के प्रवचन सुनने सब जमा हो जाते हैं।
♦ घर खोयो साळां, भींत खोई आळां - बहन के घर भाई का रहना व दीवार में मोखा का होना दोनों नूकसानदेह है।
♦ घाटो तो लूण को ई बुरो - दैनिक रूप से छोटा भी घाटा होना अच्छा नहीं।
लूण - नमक (यहां शब्द का प्रयोग सांकेतिक है ‘चुटकी के बराबर नमक’ )
♦ घी सुंधारै खीचड़ी, नांव बहू को होय - खीचड़ी में घी डालने से वह स्वयं स्वादिष्ट लगने लगती है। पर उसका यश बहु को मिलता है। अर्थात ‘‘काम कोई करे, यश कोई ओर उड़ा ले जाए।’’
♦ घूंघटै सें सती नईं, मूंड मुंडायां जती नईं - औरत के परदा (घूंघट निकालना) कर लेने से वह सती-सावित्री नहीं बन जाती। वैसे ही मां-वाप के मरने पर बेटा लोग के द्वारा मूंडण (सर के बाल देने से) करा लेने से वह उनकी समप्ति का वारिस /मालिक नहीं बन जाता।
♦ घोड़ो घास सें यारी करै तो के खावै ? - व्यापार में मुनाफा नहीं कमायेगा तो व्यापार का अर्थ ही समाप्त हो जाएगा। हिन्दी में भी ‘‘घोड़ा घास से दोस्ती करेगा तो खाएगा क्या ?’’ प्रचलित है।
♦ चढ़ै सो पड़ै - जो काम करेगा उसी से गलती होगी। नहीं करने वाले सिर्फ गलती देखतें हैं।
♦ चमड़ी जा पर, दमड़ी नईं जा - कंजूस व्यक्ति के लिये प्रयोग किया जाता है।
♦ चल सुंदर मंदर चालं, तो बिन चल्यो न जाय।
माता देती आसका, बै दिन पूंच्या आय।। -
यहां ‘सुन्दर नाम’ हाथ की लाठी को कह रही है। जिसके सहारे बूढ़े लोग चलते हैं। ‘सुंदर’ चलो मंदिर जा कर आती हूँ। अब एक तेरा ही तो सहारा बचा है मुझे। अब तो तेरे बिना तो चला भी नहीं जाता। भगवान का सारा आर्शिवाद तुम्हें ही मिलेगा। बस अब तो दिन काट रही हूँ।
♦ चांच दी है जिको चुग्यो भी देसी - माँ अपने बच्चे को मारती है तो खाना भी खिलाती है। उसका बच्चा यदि भूखा होता है तब माँ की वेदना देखे नहीं बनती। वही वेदना को वह कई बार अपने बच्चे को मार (डांटना-मारना) कर उतार देती है। चांच - चूंच से मारना।
♦ चांदी की मेख, खड़ी तमाशा देख। - चांदी के बल पर सभी काम अपने आप होने लगते हैं।
नोटः उस समय चांदी के सिक्के चला करते थे। अर्थात रुपयो के बल पर सभी काम आसानी से हो जाता है।
♦ चाकरी घणी आकरी - आकरी शब्द रोटी को कड़ा कर के सैंकने को भी कहते हैं राजस्थान में। जैसे ‘‘अरे रोटी थोड़ी आकड़ी कर घी चपौड़ दिये।’’ अर्थात रोटी को थोड़ी अच्छे से सैंक कर उस पर घी लगा देना।
आकड़ी शब्द का अभप्रिायः कड़ा से है। चाकरी - नौकरी। घणी - बहुत।
नौकरी करना बड़ा कठीन कार्य है।
♦ चाकी मांय कर साबतो कोई कोनी निकळै - जैल के अंदर जाने के बाद उसके ऊपर जीवन भर दाग लग ही जाता है। चाहे भले ही उसने कोई अपराध ना किया हो। हिन्दी में ‘गेहूँ के साथ घुन पिसना’ मुहावरे का अर्थ समान नहीं है। हिन्दी के इस मुहावरे अर्थ है मतलब कि गुनाहगार के साथ रहने वाला निर्दोष भी कष्ट पाता है। परन्तु इस राजस्थानी कहावत का प्रयोग सुहागरात में के समय भी हंसी-मजाक में भी किया जाता है। अर्थात कोई बेदाग नहीं निकलना।
♦ चालणी में दूध दूवै, करमां नै दोस देवै - जो लोग मुर्खता करते हैं वे अपनी गलती नहीं स्वीकार करते और दोष दूसरों पर मंड देते हैं।
♦ चालै है तो चाल निगोड्यो म तो गंगा न्हाऊँगी। - चाहे कुछ भी हो अपनी जिद्द मनवा कर मानना। औरत अपने जिद्द अड़ जाये तो घर तुड़ावा कर ही दम लेगी। निगोड्यो - मर्द, पति को संबोधन। निठल्ला आदमी।
♦ चिड़ी चिड़ै की लड़ाई, चाल चिड़ा में आई - पति-पत्नी की आपसी झगड़े चलते ही रहते हैं इसमें पति को हर बार अपनी हार मान लेने में ही भलाई है। चिड़ा (पति) के मना लेने के बाद पत्नी शांत हो कर उनका निमंत्रण स्वीकार कर लेती हे। आपसी तू-तू मैं-मैं की बात तत्काल दिमाग से निकाल देना चाहिये।
♦ चूंटी चून, घड़ा दस पाणी - व्यर्थ का दिखावा, झूठी आन दिखाना। एक चुटकी चूना में दस बाल्टी पानी मिलाकर दीवाल की पुताई करवाना।
♦ छा अर बेटी मांगणै में लंजण कोनी - जिस प्रकार छाछ मांगने में कोई बुरा नहीं मनता उसे ही किसी की बेटी को मांग कर अपनी बहू बनाने में भी शर्म नहीं करना चाहिये।
♦ छा रोटी रायतो, कहो बहू न खाय - घर की परिस्थिति के अनुसार खुद को ढाल लेना। छा- छाछ,रायतो - नमक मीला दही का घोल, जबकि चीनी मिला देने से लस्सी बोला जाता है।
♦ जद चोखा दिन बावड़ै, पाक्या पावै बोर।
घर भूरी घोड़ो जणै, मरिया पावै चोर।।
- अच्छे दिन आने से सब काम स्वतः होने लगते हैं।
बावड़े - संबोधन ‘अरे सुनो’ , पाक्या - पका हुआ, पावै - पाना, बोर - राजस्थान की फसल कैर, बैर, संगरी, काकड़ी की फसल। चोखा दिन - अच्छे दिन, भूरी - कमजोर घोड़ी, जणै - जन्म देना, मरिया - मरा हुआ।
♦ जननी जणै तो भक्त जण, कै दाता कै सूर।
नातर रहजे बांझड़ी, मनी गंवाजे नूर ।।
- यह कहावत राजस्थान के शौर्य की कहानी बयान करती है। उस समय राजस्थान में मुसलमानों ने आतंक फैला दिया था। मुगल शासक घर की माँ’ बहूओं - बेटियों को उठा के ले जाते थे। राजस्थान के हर घर में मुसलमानों का आतंक था। घर-घर में शौर्य की गाथाएं रची जा रही थी। मुसलमानों ने चारों तरफ से भारत को गुलाम बना लिया था। उस समय संचार का उतने साधन भी नहीं थे। तब इस प्रकार के लोकोक्तिओं के माध्यम से संदेश का प्रसारण किया जाता था। इस लोकोक्ति में एक औरत दूसरी औरत ( राजस्थान में औरत को लुगाई बोला जाता है।) को कहती है। या तो तुम बांझ ही रहना, समाज की इज्जत मत खोना, तुम ऐसी योग्य संतान जन्म देना जो सबकी रक्षा कर सके। जननी - गर्भवती मां, जणै - जन्म देना, कै दाता - सबकी भलाई करने वाला, कै सूर - वीर पुरुष जो मुगलों से लड़ सके।
जननी - गर्भवती मां, जणै - जन्म देना, कै दाता - देने वाला, कै सूर - वीर पुरुष।
♦ जात-पांत पूछै न कोई, हरि भजै सो हरि ही होई - ईश्वर के दरवार में सब इंसान बराबर है।
♦ जायोड़ौ नै पोतड़ा होयां सरसी - जायोड़ो - जो जन्म लिया, पोतड़ा - बच्चों को लपेटने का कपड़ा। राजस्थान में दादा-दादी जी की पुरानी साड़ी-धोती को साफ कर कई हिस्सों में फाड़ कर त्रिकोणियां पोतड़ा बनाया जाता था। अर्थ भगवान जिसे संसार में भेजा है उसके लिए भोजन की भी व्यवस्था कर दी है। बच्चा जन्मते ही माँ के आंचल को भगवान दूध से भर देता है।
♦ ठण्डो सौ तातै’लौ नै फाटै - तातै’लौ - गर्म लोहा। ठण्डा लोहा ही गर्म लोहे को काटता है।
♦ ठावां ठावां टापला बाकी का लंगोट - पद, प्रभाव और प्रतिष्ठा के अनुसार भैंट पूजा करना।
♦ डाकन बेटा दे’ क लै ?- शैतान आदमी हमेशा दूसरों का हड़पने में रहता है।
डाकन - दुचरित्र व्यक्ति, दे’ क लै - देना कि लेना।
♦ तानो सीर को होवै - किसी व्यक्ति को सामाजिक ताना देना पूरे समाज को ताना देना माना जाता है।
सीर को - संयुक्त परिवार।
♦ तेरो जायोड़ा भी कदे पगां चालसी के ? - बच्चों की शैतानी भरी हरकतों से तंग आकर उसकी माँ को व्यंग्य करना ‘‘ तुम्हारा जन्मा बच्चा कभी अपने पांव पर चलेगा भी क्या?’’ अर्थात ऊँटपटांग काम करने वाला व्यक्ति कभी जवान नहीं होता वह किसी न किसी काम में नादानी कर ही बैठता है। कमजोर बुद्धि का इंसान।
♦ तेरी मेरी बणै नां तेरै बिना सरै नां - एक दूसरे की बनती भी नहीं और अलग रह भी नहीं सकती। दो बहनें, या अन्य कोई दो व्यक्ति पर भी इसका प्रयोग संभव है।
♦ तेरो तो घड़ो ईं फुट्यो, मेरो बण्यो बणायो घर ढहग्यो - किसी का नूकसान थोड़ा सा ही हुआ पर दूसरे का सबकुछ नष्ट हो जाना। कोई किसी का घर फुड़ावा दे। पति-पत्नी में दरार पैदा करा दे।
♦ तेल तो तिलां में सैं ही निकळसी - जिसके पास कुछ देने को ही नहीं वह क्या देकर निहाल करेगा। अर्थात देने को होगा तब न देगा।
♦ पढ़ले बेटा फारसी, तळै पड़्यो सो हारसी - कोई कितना ही विद्वान क्यों न हो, जो जमीन पर गिरा वही हार जाएगा।
♦ पाणी पीये छाण कर, सग्गो (संबंधी) करिये जाण कर।- पानी को छान कर पीना चाहिये और बच्चों को संबंध संबंधी को जान-पहचान कर करना चाहिये।
♦ पूत का पग पालणां ईं दिखज्या - बचपन में ही बच्चे की हरकतों से उसका आचरण कैसा होगा पता चल जाता है।
♦ थावर की थावर गाँव थोड़ा’ई बळै - थावर - शनिवार का दिन, यह मिथ्थक अंधविश्वास को तौड़ने के लिए कहावत प्रचलित है। राजस्थान में गर्मी प्रचंड पड़ती है। कईबार सुखे के चलते खेतों में आग भी लग जाती है जो लगभग एक सप्ताह जलती रहती है। लोगों का यह भ्रम है कि यह आग शनिवार को ही अधिकांशतः लगती है। उत्तर भारत में वर्षा को लेकर यही मिथ्थक प्रचलित है कि शनिवार को पानी बरसने से एक सप्ताह तक पानी बरसेगा। इस कहावत का अर्थ है हर शनिवार की शनिवार आग नहीं जलती। थोड़ा’ई - हमेशा नहीं, बळै - जलना।
♦ थोथो चणो वाजै घणो - हिन्दी में भी प्रचलित ‘‘थोथा चना बाजे घना’’ मुर्ख व्यक्ति अधिक का बोलना।
♦ दमड़ां को लोभी बातां सें कोनी रीझै - दमड़ां - रुपये-पैसे, धन का लोभी किसी की बात से संतुष्ट नहीं होता।
♦ दलाल कै दिवाळो नईं, मसीत कै ताळो नईं - जो दलाली करता है उसे कभी नूकसान नहीं हो सकता। वैसे ही जैसे मस्जिद में ताला नहीं लगाया जाता क्योंकि वहाँ चोरी करने को कुछ नहीं मिलता।
♦ दाई सें पेट छानो कोनी - जानकार आदमी से कुछ छुपा नहीं रहता। जैसे पेट को छूते ही दाई स्त्री के गर्भमें पलते बच्चे का आकार बता देती है। उदाहरण के लिए - "यार हमसे क्या छुपाना हम सब जानते हैं।"
♦ दिन जातां बार कोनी लागै - समय गुजरते समय नहीं लगता।
♦ दिल लाग्यो गधेड़ी सें तो परी के चीज - दिल किसी से लग जाने पर उसका कुल नहीं देखा जाता।
♦ दिल्ली की कमाई, दिल्ली में गुमाई - बड़े शहरों में खर्च अधिक होता है। इसलिए कहा गया है शहरों में कमाने वाले कभी धन जमा नहीं कर पाते। दिल्ली इस मुहावरें में बड़े शहरों का प्रतिनिधित्व करता है।
♦ दिवाळो काढै तीन जणां, हुण्डी, चिट्ठी व्योपार घणां
तूं क्यूं काढै चौथा जणा ? पैदा थोड़ी, खरच घणां।
- दिवाला तीन लोग ही निकालते हैं जो नगद जमा लेकर क्षमता से अधिक हुण्डी-चिट्ठी (रूका-पुर्जा) काटते हैं या फिर अपनी औकात से अधिक व्यापार कर लेते हैं, पर साथ ही चौथा आदमी जो अपनी औकात/क्षमता से अधिक खर्च करता है उसका भी दिवाला निकलना ही है। काढै - निकालना। घणां - अधिक।
♦ दूध पीवती बिल्ली गंडकड़ां में पजगी - गंडकड़ां - कुत्ता, पजगी - फंसना
खाता-पीता भला आदमी को बुरी संगत का लग जाना।
♦ दूर का ढोल सुहावणा लागै - दूसरों की चिकनी-चुपड़ी बातें सबको प्रिय लगती है।
♦ दूर जंवाईं फूल बरोबर, गांव जंवाईं आधो
घर जंवाईं गधै बरोबर, चायै जैयां लादो
- घर-जंवाई पर व्यंग्य।
♦ दूसरै की थाळ में घी घणों दीखै - हर कोई को यह लगता कि दूसरों के व्यवसाय में ज्यादा कमाई है।
♦ देख पराई चोपड़ी, क्यों ललचावै जी ?
रूखी-सूखी खाय कर ठंडो पाणी पी।
- दूसरे लोगों के सुख से न जल का खुद के पास जो हो उसी पर संतोष करना चाहिये।
♦ देख पराई चोपड़ी, जा पड़ बेईमान
एक घड़ी की सरमा-सरमी, दिन भर का आराम
- दूसरे के भोजन पर टूट पड़ना। एक बार शर्म लगती है पर भोजन कर लेने के बाद दिन भर आराम से कट जायेगा।
♦ धन धन माता राबड़ी, जाड़ हालै न जावड़ी - राबड़ी - राजस्थान में बाजरे की राबड़ी (कढ़ी) बनाई जाती है। बाजरा राजस्थान में गेहूं के समतुल्य माना जाता है। बाजरे की खीचड़ी, राबड़ी बहुत प्रचलित है। शीतला माता को बाजरे से बनाये भोज्य प्रदार्थ का ही भोग लगाया जाता है। इसी को कई लोग व्यंग्य के रूप में प्रयोग करते हैं। यदि व्यवसाय में बैठे-बैठे आमदनी होने लगे तब इसका प्रयोग किया जाता है।
♦ धेलै की न्यूंतार, मांडै कै बांथ घालै - धेलै - नाममात्र, न्यूंतार - निमंत्रण देना, मांडै - विवाह के अवसर पर, बांथ - अंडंगा, घालै - डालना। जिसकी नाम मात्र की औकात नहीं उसे शुभकार्य के समय परिवार का सदस्य होने के नाते बुलाना तो पड़ता ही है। पर वही इस अवसर को अपने पुराने पारिवारिक विवाद को सामने ला कर नया बखेरा खड़ा कर देता है।
किसी भी शुभ कार्य को शांतिपूर्ण संपन्न ना होने देना।
♦ नणद अर नणदोई, गळे लाग कर रोई - नणद - पति/ सोहर की बहन, नन्दोई - बहन का जंवाई/ सोहर
यानि जीजा-साली का रिश्ता। भाभी के लिए दोनों ननद और नणदोई। बस आगे आप आनन्द लिजिये। कितना दुखभरा माहौल होगा।
♦ नानी रांड कुँआरी मरगी, दोयती का फेरा - जब कोई निर्धन आदमी को अचानक से धन आ जाए तो वह ज्यादा दिखावा करता है। इसका अर्थ है जीवनभर कंकला बना फिरता था, अब मरने के समय सेठ बना फिरता है।
♦ नींद कै विछावण नईं, भूख कै लगावण नईं - मुहावरा स्पष्ट है। इसका अर्थ बहुत गहरा है। नींद और भूख के सामने आदमी लाचार है। नींद आने पर वह कहीं भी लुड़क जायेगा। वैसे ही भूख लगने पर उसे कुछ भी खाने को चाहिये। इस मुहावरे को किसी भी उपयुक्त अवसर पर प्रयोग किया जा सकता है।
♦ नीचो कर्यो कांधो, देखण आळो आंधो - कोई गलती कर के लज्जा से अपना सर झूका ले तो उसे अनदेखा कर देना चाहिये। फिर भी कोई इसे देखता है तो वह मुर्ख है।
♦ बडै घरां बेटी देई, मिलणै का सांसा - अपनी क्षमता से बड़े घर में बेटी ब्याह देने से बेटी से मिलने में भी आफत आ जाती है। क्योंकि बेटी के घर क्या ले जाए? उसकी क्षमता न रहते हुए भी ले जाना तो पड़ता ही है।
♦ बद चोखो, बदनाम बुरो - बुरा आदमी अच्छा पर बदनामी वाला आदमी अच्छा नहीं।
♦ बाबो सणै लड़ै, बाबा नै कुण लड़ै ? - बड़े तो सबको डांटतें हैं पर बड़ों को कौन डांटें ? धनी व्यक्ति की कोई गलती नहीं बोल सकता।
♦ बामण नै दी बूढ़ी गाय, धरम नईं तो दाळद जाय - ब्राह्मण को बुढ़ी गाय दान देकर धर्म भी कमा लिया और गाय से पिण्ड भी छुड़ा लिया। किसी की आढ़ में स्वार्थ पुर्ति करने वाले लोग।
♦ बिनां रोये मा ईं बोबा कोनी दे - बोबा - स्तन, बच्चे के रोये बिना माँ भी दूध नहीं पिलाती।
♦ मरे जिको तो बोली सैं ईं मरज्या, नईं गोळी सें ईं कोनर मरै - लज्जाशील व्यक्ति तो अपमान जनक शब्द सून कर ही मर जाता है, लेकिन निर्लज्ज को कोई फर्क नहीं पड़ता भले ही उसे गोली से ही क्यों न मार दो।
♦ माया तेरो तीन नांव परसा, परसो, परसराम - धन आने से आदमी का मान स्वतः बढ़ने लगता है।
♦ मोर नाचै ईं नाचै, पण पगां कानी देख कर रोवै - चाहे कितना भी धन हो जाए घर में शांति नहीं तो सब व्यर्थ है। जिस प्रकार मोर नाचती तो सुन्दर लगती हे पर जब वह खुद के पांव को देखती है तो रोती है। खुद की चिंता से परेशान होना।
♦ यो मेळो एक दिन खिंडणो ईं है। - इसे व्यंग्य में भी कहा जाता है। जब कोई प्रेम विवाह का तलाक हो जाय या अमेल संबंध होने पर तो यह मुहावरा प्रयोग किया जा सकता है। एक दिन इनको विछड़ना / विखड़ना ही है।
खिंडणा - बिखरना।
♦ रांड कै रांड पगां लागी, क मेरै जिसी तुं - एक विधवा दूसरी विधवा के पांव छूते हुए संतोष करती है कि अकेली मैं ही नहीं हूँ। तु भी तो विधवा है। एक बरादरी के लोगों का आपस में मिल कर खुश होना ।
♦ राड़ कै सिर-पग कोनी होवै - लड़ाई-झगड़ों को कोई सिर-पैर नहीं होता।
♦ रामदेवजी नै मिल्या जिका ढेढ ईं ढेढ - राजस्थान में रामदेव पीर देवता के रूप में पूजे जाते हैं। मान्यता है कि रामदेवजी सभी प्रकार की बीमारी को ठीक कर देते हैं। तो उनके दरबार में रोजना बीमार लोगों का तांता लगा रहता है। इसी को लेकर यह कहावत चल पड़ी। अब इसको कई जगह व्यंग्य के रूप में प्रयोग करते हैं। जैसे मुर्खों की मंडली में जमा लोग की बात सुन कर यह कहा जा सकता है। या बच्चों के क्लास में फैल होने वालों बच्चों की संख्या अधिक हो तब।
♦ लातां का देव बातां सें कोनी मानै - लातों का देवता बात से नहीं मानते।
♦ लाद दे लदायदे, लादण आळा साथ दे - अपना काम दूसरों से करवाना। धोबी अपने गघे से रास्ते भर बात करता है।
♦ सिर भलाईं कट ज्यावो, नाक नईं कटणी चाये- मान-सम्मान बनी रहे, भले ही जान देनी पड़े। राजस्थान में लोगों का इतना मान होता था कि वह मुगलों से लड़ने जा रहा है। यह सुनकर ही लोग गर्व से फूले नहीं समाते थे।
♦ सै आप-आप का भाग खावै - सब अपना-अपना भाग्य का खाते हैं।
♦ हींजड़ां की कमाई, मूँछ मुँड़ाई में जाईं - मुफ्त की कमाई, झूठी शान दिखाने में ही चली जाती है।
Link PDF File : राजस्थानी कहावत कोश
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